Sunday, October 28, 2018

अकेले शेर - 24

अमन का इक पैग़ाम लिखकर मज़हब पर इल्ज़ाम लिखा
ख़ुदा लिखा पाली में हमने उर्दू में है राम लिखा

सत्य है अल्लाह सत्य है ईश्वर सत्य है जिसकी खोज में तुम
मंज़िल को बस सत्य लिखा है रहगुज़र को बदनाम लिखा

Wednesday, October 24, 2018

ग़ज़ल - 81

वो है एक बदगुमानी, और क्या है
मेरे ख़्वाबों से छेड़खानी और क्या है

सुबह दफ़्तर, शाम को घर
रोज़मर्रा की परेशानी और क्या है

सारी आरज़ू-ओ-आबरू-ओ-जुस्तजू लूटकर
पूछते हैं वो जानी, और क्या है

मुझको छूकर अक्सर जल जाया करते हैं
राख में अंगारे की निशानी और क्या है

सच देखती है सच बोल नहीं सकती
इक कलम की बेज़ुबानी और क्या है

बे-वक़्त बोलना, बे-वक़्त चुप रहना
ज़िन्दगी की पशीमानी और क्या है

'जौन' से आख़िरी बार मिली वो कहकर
इश्क़ जावेदानी है, और क्या है

Thursday, October 11, 2018

अकेले शेर - 23

बीमार हैं चारासाज़ी के ग़ुलाम हैं
हम फ़क़त अपने माज़ी के ग़ुलाम हैं

हारने वालों ने घुटने नहीं टेके
जीतने वाले बाज़ी के ग़ुलाम हैं

Tuesday, October 9, 2018

जन्मदिन

जन्मदिन, एक और दिन...
पर मैं तो गर्भ में भी ज़िंदा था
क्या उस दिन मेरा जन्मदिन था जब मैं पहली बार भ्रूण बना
या उस दिन जब उसमें आत्मा प्रविष्ट हुई
या फिर उस दिन जब मैंने पहली बार गर्भ में हरकत की

पर जन्मदिन मेरा है या इस आवरण का जिसे हम शरीर कहते हैं
यह तो इसपे निर्भर करता है कि हम स्वयं को किससे इंगित करते हैं

युग के अंत में सृष्टि की पुनरावृत्ति होती है
तो क्या हर युग की शुरुआत में मेरा जन्मदिन है

पर आत्मा तो युगातीत भी है
तो क्या मेरा जन्म रचयिता का भी जन्मदिन है
क्या हम और रचयिता एक ही हैं?

Sunday, October 7, 2018

ग़ज़ल - 80

बू-ए-ज़मीं से बारिश का पयाम गुज़र जाना
जैसे तेरे लबों से मेरा नाम गुज़र जाना

कटती है कुछ इस तरह ख़्वाबों में ज़िंदगी
नींद में हक़ीक़त का अंजाम गुज़र जाना

कुछ ऐसा है मुझपर तेरे ख़यालों का मो'जिज़ा
मौज-ए-मशक़्क़त में भी आराम गुज़र जाना

देखती हैं उदास आँखें दरवाज़े और दरीचे की
तेरा मेरी गलियों से गुमनाम गुज़र जाना

तेरी सोहबतों में दिन ढले रक़ीब का, और मेरा
तेरे तसव्वुर में बैठना और शाम गुज़र जाना

भला इंसान था मारा गया सियासी उलझनों में
दुनिया में ऐसे वाक़िओं का तमाम गुज़र जाना

Sunday, September 30, 2018

ग़ज़ल - 79

चमन के सभी गुल धानी के नहीं हैं
मेरे ख़यालात सभी मआनी के नहीं हैं

तुझको देख लेता हूँ तो फिर ये सोचता हूँ
मेरे मसलात सभी परेशानी के नहीं है

तूने देखे हैं बोहोत दर्द के मारे हुए लोग
तेरे तजुर्बात मेरी ज़िंदगानी के नहीं हैं

हमने देखा है इक मज़लूम की आँखों में लहू
जहाँ में अश्क़ सभी पानी के नहीं हैं

और वो हँसी ख़ुशी साथ रहने लगते हैं
ऐसे वाक़िए मेरी कहानी के नहीं हैं

Friday, September 21, 2018

अकेले शेर - 22

दिल ने फिर से कर दी इक अय्यारी है
शायद पूरी मरने की तय्यारी है

मुझको इश्क़ दोबारा हो चला है
मुझको एक जानलेवा बीमारी है

Thursday, September 20, 2018

अकेले शेर - 21

मेरी दास्तान-ए-ज़िन्दगी की बस यही तस्वीर है
मैं तेरा किरदार हूँ पर तू मेरी तहरीर है

इस दास्ताँ में चल रहीं हैं दो कहानियाँ बराबर
इक मेरी ताबीर है और इक तेरी तक़दीर है

Wednesday, September 12, 2018

अकेले शेर - 20

सिर्फ़ मुद्दे उठाना ही उनका इरादा है
सवाल की अहमियत जवाब से ज़्यादा है

इक तरफ़ वंश का स्थापत्य उनका सत्य है
इक तरफ़ देखिए तो राजा ख़ुद प्यादा है

Sunday, September 9, 2018

अकेले शेर - 19

है जो तेरे रुख़सार की पहरेदारी में एक तिल
जैसे किसी के हसीन असरार ज़ब्त किए हो एक दिल

चाँद सँवरता ख़ुद को देख कर सागर के आईने में
सागर की तफ़्सीर में सारे रूप चाँद के हैं शामिल

Monday, September 3, 2018

ग़ज़ल - 78

गोशे-गोशे में मचलती है
वो ख़ुशबू कहाँ सँभलती है

उसके साँसों की हरारत से
सीने की बर्फ़ पिघलती है

मेरे होंठों से लग कर वो
मेरे अंतस में फिसलती है

मैं उसके क़रीब आ जाता हूँ
जब दिन होता, शामें ढलती हैं

#चाय

Sunday, August 26, 2018

अकेले शेर - 18

बा-हताश आदम सा जन्नत के दर से लौटे हैं
हाँ हम अभी छुट्टी मना कर घर से लौटे हैं

Wednesday, August 15, 2018

अकेले शेर - 17

जहाँ अहल-ए-वतन तहज़ीब-ओ-रिवायत की तामील में फ़ाज़िल है
असल मायने में वो ही मुल्क़ आज़ादी का हासिल है

परतंत्र रहे, बलिदान दिया, अपने मौलिक अधिकार लिए
पर अपनी संस्कृति तक जाना ही आज़ादी की मंज़िल है

Friday, August 10, 2018

अकेले शेर - 16

तीरगी का अक्स और ख़ामोशी की सुनवाई
ज़िन्दगी के कहकशाँ में गूंजती है तन्हाई

बे-इंतिहाई भी है ख़ुदा का एक रंग
सो अपने वीराने में हमने पाई मसीहाई

Saturday, August 4, 2018

ग़ज़ल - 77

दुनिया की ज़ात से परे होकर
मिल रहे दो पंछी हरे होकर

ये दुनिया बट चुकी है अब ख़ानों में
सो वो मिलते हैं इक दूजे से डरे होकर

अभी इक पैग़ाम लाई है सबा
मिले कल रात दो पंछी मरे होकर

Wednesday, August 1, 2018

ग़ज़ल - 76

वो किस्सा अधूरा छूट गया था
इक लम्हा वक़्त से टूट गया था

वो फिर मुझे न आया मनाने
इक बार मैं उससे रूठ गया था

उसके शहर-ए-उल्फ़त का उजाला
मेरी बीनाई लूट गया था

उसकी ख़ुशी में आँसू ढलके
अमृत का इक घूँट गया था

मैं तो पहले ही मर चुका था
अख़बारों में झूठ गया था

Thursday, July 26, 2018

ग़ज़ल - 75

उनकी आँखों ने किया हमसे कोई बेनाम सा वादा होगा
बेवजह धड़क रहा है दिल कितना सादा होगा

किसी पैमाने में न बैठेगा ये दरिया-ए-उल्फ़त दिल का
ये जितना इश्क़ है दुनिया में उससे भी ज़ियादा होगा

वो भँवरा साँझ ढले आता है गुल के नज़दीक
हाँ कुछ ऐसा ही मेरे दिल का इरादा होगा

हम जो मिल जाएँ बज़्म-ए-दहर तो और क्या होगा
खुशियाँ दो-गुनी और ग़म तेरा आधा होगा

Monday, July 23, 2018

ग़ज़ल - 74

अपनी ख़ुशबू अपनी रवानी भूल गए
शहर आकर ज़िंदगानी भूल गए

यहाँ बाद-ए-सबा भी है अज़ाब-गाह
हम गाँव का मीठा पानी भूल गए

बंद-बदरंग कमरों में सर खपाते हैं
वो पेड़ धानी और धूप जाफ़रानी भूल गए

अपनी जड़ों से दूर स्वावलंबन में रहते हैं
अपने बुज़ुर्गों की निगहबानी भूल गए

प्रकृति पर बे-इंतिहा ज़ुल्म ढाते हैं
ख़ुदपर कायनात की मेहरबानी भूल गए

अरमानों के समझौते को ज़िन्दगी समझ बैठे
हम जैसे ज़िंदा रहने के मआनी भूल गए

**************************

अपनी ख़ुशबू अपनी रवानी भूल गए
शहर आकर ज़िंदगानी भूल गए

यहाँ बाद-ए-सबा भी है अज़ाब-गाह
हम गाँव का मीठा पानी भूल गए

बंद कमरों में सर खपाते हैं
नर्म घास पे फ़ुर्सत की छाँव भूल गए

ज़िन्दगी कुछ नही जुज़ सफ़रनामा है
बढ़ते रहने की ललक में सफ़र को ही भूल गए

शौक़ बेशक़ीमती हैं, हर पल की क़ीमत है
अरमाँ तो सारे अब फंदों पे झूल गए

Tuesday, July 17, 2018

ग़ज़ल - 73

चमन के गुलों पे रंग कौन डालेगा
तुम नहीं होगी तो मुझे कौन सँभालेगा

मेरे अतफ़ाल-मन को फिर कौन पोसेगा
मेरी चंचल-हवस को फिर कौन पालेगा

मेरी गुस्ताखियों पे मुझसे कौन रूठेगा
मेरे ख़तों को हवा में कौन उछालेगा

जो तू न रही तो मैं खाली न हो पाऊंगा
तुझे मुझमें से फिर कौन निकालेगा

Friday, July 13, 2018

अकेले शेर - 15

तेरे बिछड़ने का जो ग़म है उस ग़म की रुख़्सत से भी कम
है उस ग़म की रुख़्सत से भी कम तेरे बिछड़ने का जो ग़म

फूट कर रोएँगे हम दर्द-ए-जिगर के मज़ार पर
दर्द-ए-जिगर के मज़ार पर फूट कर रोएँगे हम

Thursday, July 12, 2018

अकेले शेर - 14

वक़्त के साथ तुम हर एक बात भूल जाओगे
मगर जो महसूस किया मुझ संग वो कैसे भुलाओगे

Wednesday, July 4, 2018

ग़ज़ल - 72

फ़ज़ा की शफ़क़ रौशनी में घुल जाऊँ
मैं इस तरह अपनी तीरगी को उलझाऊँ

न सिरें हैं हासिल न गिरहें काबिज़
ज़िन्दगी तुझे मैं किस तरह सुलझाऊँ

आफ़ताब अपनो मुठ्ठी में भींच लूँ
पर खलाओं से निकलती किरणें कैसे बुझाऊँ

इक पुरानी याद सा आँखों में आकर
इतना बरस लूँ के धुल जाऊँ

तू अपनी ज़ंजीर में जकड़ तो ले मुझे
पर ऐसे बाँधना के फिर खुल जाऊँ

तुझपे फूल डालूँ तेरी इबादत करूँ
मैं नहीं जानता तुझे कैसे रिझाऊँ

खुशी हो तो इतनी के आँसू छलकें
दर्द हो तो महज़ इतना के मर जाऊँ

Thursday, June 28, 2018

चाँदनी चमक-चमक

चाँदनी चमक-चमक
गुलबदन गमक-गमक
क्यारियाँ महक-महक
बहारें चहक-चहक
शोला सा दहक-दहक
मन मेरा लहक-लहक

इश्क़ ये नया-नया
हो निगाह से अयाँ

जब ये दिन ढ़ला-ढ़ला
राहबर चला-चला
और देर ठहर-ठहर
होने दे प्रथम पहर

बात कोई इक सुना
राग कोई गुनगुना

बात जिसमे बात हो
जिसमें दिन न रात हो
बात हो समय परे
दिल में जो जगह घरे

बात इक उड़ान की
दूर के मक़ान की
जो जग़ह से परे
सिर्फ प्रेम से भरे
बात में सुगंध हो
रोम रोम में भरे

आए कहीं इक सदा
दिल कहीं दुखा-दुखा
हो विरह की घड़ी
मोतियों की झड़ी

बात जिसमें चाँद हो
भेड़िया की माँद हो
बात जिसमे इक परी
बोलती सदा खरी

पर अब न कोई बात हो
अब महज़ जज़्बात हों
बात अब फ़िज़ा करे
दास्ताँ कोई गढ़े

और हम विलीन हों
इक दूजे के अधीन हों
फिर सूर्य की पहली किरण
हम लौट जाएँ अपने बन

अकेले शेर - 13

मेरे ज़िंदान-ए-जिस्म से ही होकर जाती तेरी खुशबू
मैं लम्हा लम्हा घटता हूँ तू क़तरा क़तरा बढ़ती है

ग़ज़ल - 71

तेरे दीदा-ए-बेताब को इंतज़ार हो मेरा
ये हाल-ए-इश्क़-ए-बेकसी इक बार हो तेरा

मेरी तह-ए-तड़प का इल्म तुमको भी हो जाना
हम जैसों की ज़िंदगी से सरोकार हो तेरा

कभी तो यूँ हो रुत बदले, बरसात हो
दिल मेरा हो शाद और बेक़रार हो तेरा

कभी तो रख दे तू अपना रुख़्सार हाथों पे मेरे
ख़त्म बस तस्वीरों में करना दीदार हो तेरा

इक दिन तो क़रार कर लें हम-दोनों ज़िन्दगी का
इक दिन तो न तेरे लबों पे इन्कार हो तेरा

*********************************

तेरे दीदा-ए-बेताब को हो इंतज़ार मेरा
ये हाल-ए-इश्क़-ए-बेकसी हो इक बार तेरा

मेरी तह-ए-तड़प का इल्म तुमको भी हो जाना
हम जैसों की ज़िंदगी से हो सरोकार तेरा

कभी तो रुत बदलेगी बरसात होगी
दिल मेरा होगा शाद और बेक़रार तेरा

कभी तो रख देगी अपना रुख़्सार मेरे हाथों पर
ख़त्म होगा बस तस्वीरों में करना दीदार तेरा

इक दिन तो क़रार कर लेंगे हम-दोनों ज़िन्दगी का
बात पुरानी रह जाएगी वो हर बात पे करना इंकार तेरा

Tuesday, June 26, 2018

ग़ज़ल - 70

दिन ने सूरज की खिड़की खोली
रंगों ने फिर खेली होली

मैंने दिन पर पर्दा डाला
रात भी मेरे संग में हो ली

सुबह सबसे पहले उठकर
हमने अपनी नब्ज़ टटोली

हाथ पसारो और उड़ जाओ
इक दिन चिड़िया मुझसे बोली

हम-तुम जैसे दरिया प्यासा
दुख-सुख जैसे दामन-चोली

Monday, June 18, 2018

अकेले शेर - 12

खुशबू खुशबू बहता है
पुष्प इत्र को सहता है

मैं तो बांस का कासा हूँ
दरिया क्यूँ मुझमें रहता है

Friday, June 1, 2018

ग़ज़ल - 69

सभी से हँसकर, बोलकर मिलिए
पर नकली लोगों से तोलकर मिलिए

बड़े बुज़ुर्गों से सतर्क रहिए
बच्चों से दिल खोलकर मिलिए

अपनी सोहबत समझकर चुनिए
अपनी जेबें टटोलकर मिलिए

Saturday, May 12, 2018

ग़ज़ल - 68

ज़िंदगी यूँ तो अपनी क्षमता में कट जाती है
हाँ मगर एक आधा पहलू में सिमट जाती है

अपने लिए वो अक्सर कम पड़ जाती है
इक माँ इतने हिस्सों में बट जाती है

दिन वो राएगाँ जो सर्वत की खोज में निकले
शाम वो मुकम्मल जो माँ की ममता से लिपट जाती है

ज़रूरी नहीं के ता-उम्र ताबिश से महरूम रहा जाए
हवा गर ज़ोरों की चले तो बदली छट जाती है

Wednesday, May 2, 2018

ग़ज़ल - 67

शब जो चारों तरफ़ हल्ला हुआ
दिल यादों का इक मोहल्ला हुआ

इक बूढ़ी याद मुझको खोजने आयी
इक तिफ़्ल मेरे अंदर निठल्ला हुआ

आँखों के कोरों से धनक फूटी
मेरे सीने पे बारिश क्या वल्लाह हुआ

इस तरह घुमाएं हैं वो ज़िन्दगी हमारी
जैसे उनकी उंगलियों में फसा छल्ला हुआ

Thursday, April 26, 2018

ग़ज़ल - 66

इक आशा उड़ने को उछल-उछल
लेकिन हैं उसके अंग विकल

पर क्या उड़ान रुक सकती है
जब मन में हो विश्वास अचल

इक पंखुड़ी के नहीं होने से
क्या खुशबू गुल की होती ओझल

दुर्गम पहाड़ियों को देखे वो
नहीं हो कर भी रहें कदम मचल

हर पथ की निगाहें उसको देखें
नहीं उसकी पेशानी पर इक बल

दुनिया उसको अपनाए नहीं तो
इस दुनिया की है स्थिति विकल

Friday, April 20, 2018

ग़ज़ल - 65

शब ही जैसे सुब्ह की तक़दीर है
वस्ल जैसे हिज्र की तामीर है

कर रही बीमार मुझको दम-ब-दम
मुझपे तेरे जिस्म की तासीर है

इतना बोझल हो के डूबा आफ़ताब
जैसे इसके दिल में कोई पीर है

मुझको बढ़ाकर हाथ क्यूँ छूते नहीं
बोलती मुझसे तेरी तस्वीर है

कितनी बेताबी है सीने में जहाँ के
जैसे किसी के वीरानगी की ताबीर है

चप्पे-चप्पे ग़फ़लतों के इस समर में
इल्म ही गोया मेरी शमशीर है

Monday, April 16, 2018

रुकावट के लिए खेद है

मैं और कुछ नहीं
बस एक रिश्ता हूँ
तुम से तुम तक का
बस एक ज़रिया हूँ
तुम्हें पहुँचाने के लिए
तुम्हारे न्यूनतम से सर्वोत्तम तक
पाश्विक से पुरुषोत्तम तक
पर ये रास्ते दो तरफ़ा हैं
ये रिश्ता एक वर्तुल है
मैं ज़रिया बन कर थक चुका हूँ
रास्ते में अब चोट के गड्ढे हैं
भावनाओं के अवरोधक हैं
तो अब अगर तुम आगे नहीं बढ़ पा रहे
तो माफ़ करना, रुकावट के लिए खेद है

Thursday, April 12, 2018

ग़ज़ल - 64 : बलात्कार

आओ छू लूँ मैं तुमको इस तरह
काँप उठे तुम्हारी रूह जिस तरह

बाँध कर तुमको तुमसे ताक़तवर हाथों में
जिस्म का गोश्त नोच लूँ इस तरह

मेरे हाथों में कलावा भी है ताबीज़ भी
धर्म का काम है तमाशा देखो मज्लिस तरह

मैं भेड़िया हूँ मगर चंदन लगाया टोपी पहनी है
मेरा शिकार कर लो मगर तुम करोगे किस तरह

Friday, April 6, 2018

ग़ज़ल - 63

शुक्रवार दफ़्तर से घर आता हूँ
जैसे जज़्बातों से भर आता हूँ

कदम ऐसे उछलते जैसे चाँद पर पड़ते हों
अजनबी लोगों से टकराता हूँ, मुस्कुराता हूँ

घर आकर, एक गुनगुनाती हुई चाय बनाकर
शफ़क़ चाँदनी के आग़ोश में बैठ जाता हूँ

कुछ पल को हिरासा आँखें शून्य में तकती हैं
दो एक गीत सुनता हूँ, बीती भुलाता हूँ

Wednesday, April 4, 2018

अकेले शेर - 11

साथ साथ चलती है मगर साथ नहीं लगती
कोशिश कितनी भी कर लूँ ज़िंदगी हाथ नहीं लगती

एक खालीपन है बाहर जिसे मैं शोर से भरता हूँ
एक सन्नाटा है मुझमें जिसमें आवाज़ नहीं लगती

Saturday, March 31, 2018

अकेले शेर - 10

तेरा मुझमें आँखें मूँद के गिरना
पत्तों पे ओस की बूंद का गिरना

वस्ल-ए-नमनाक फ़ज़ा में घुल जाना
तमाम शब मिट्टी पर धुंध का गिरना

Wednesday, March 28, 2018

ग़ज़ल - 62

दो जहान में पड़ी ज़िन्दगी
हाशिये पर खड़ी ज़िन्दगी

तिश्नगी का इक सफ़ीना
मझधार में पड़ी ज़िन्दगी

बुझते दिये सी फड़फड़ाई
हवाओं से लड़ी ज़िन्दगी

इंसानों से पार हो गयी
सायों से लड़ी ज़िन्दगी

उम्र के साथ मौत भी लायी
जाने कैसी हड़बड़ी ज़िन्दगी

खुशबू से न गुल की ज़ीनत
न होती छोटी बड़ी ज़िन्दगी

माँ के आँचल से लिपट के रोई
खुशियों की झड़ी ज़िन्दगी

घड़ी की सुइयाँ कर रहीं टिक टिक
पल पल गुज़र रही ज़िन्दगी

Monday, March 26, 2018

अकेले शेर - 9

ये रास्ते कितनी तरफ़ खुलते हैं
तुमसे मिलते हैं जितनी तरफ़ खुलते हैं

खुशबू की तरह राहों में मिलते हैं कुछ लोग
कैसे समेटोगे ये इतनी तरफ़ खुलते हैं

ग़ज़ल - 61

इस तरह अपनी शख़्सियत को फ़ाज़िल बनाया
जिधर को बह रही नदी उसे मंज़िल बनाया

ख़्वाहिशें मार कर लाशों की इक कश्ती बनायी
जहाँ पे कम हुआ पानी उसे साहिल बनाया

बोहोत अरसा हुआ है यार की दस्तरस में बैठे
मुद्दत हुई दो जिस्म जोड़कर दिल बनाया

Friday, March 23, 2018

ग़ज़ल - 60

हाथों की लकीरों में तेरा इम्कान लिख दिया
हमने अपनी क़िस्मत बदलने का फ़रमान लिख दिया

महफ़िल में इक दिन पढ़ रहा था उसकी बुराइयाँ
बेख़ुदी में हमने उसे जान लिख दिया

जो पूछा के बताएँ कुछ अपना भी तार्रुफ़
दर्द की बस्ती का सुलैमान लिख दिया

इक दिन लहू ने पूछा इतनी शराब किस लिए
थोड़ा ख़ून निकाल कर आराम लिख दिया

इक शब जो उसने चेहरे से काकुल हटाए अपने
सितारों ने आसमाँ पे चाँद लिख दिया

क्या क्या नीलाम होगा जब मुफ़्लिसी आवेगी
फेहरिस्त में सबसे ऊपर ईमान लिख दिया

इक दिन हिसाब करने बैठा था फ़रेबों का
दिल ने कलम उठायी और दीवान लिख दिया

Monday, March 19, 2018

ग़ज़ल - 59

मछली कहे ये पानी से
तिश्ना न बुझे ज़िंदगानी से

तुझसे मुझमें हलचल वो नहीं
जो सागर की तुग़्यानी से

तू क्यूँ थम नहीं जाती
उम्र कहे ये जवानी से

तू कैसे ख़ुश रहती है
समझ पूछे नादानी से

तूने अब तक क्या-क्या सीखा
मुश्किल पूछे आसानी से

इतना बल कैसे पड़ता है
बोसा पूछे पेशानी से

इक खिलौने की क्या क़ीमत है
तंगी पूछे मनमानी से

तू ही अखबारों में क्यूँ छपती है
सच पूछे ये कहानी से

चलो दफ़्तर की रौनक़ बढ़ाएँ
ज़िंदगी की क़ुर्बानी से

दिल-ए-फ़लक में टीस उठी है
टूटे तारे की निशानी से

वो हिज्र को उल्फ़त कहती थी
मैं मिला था इक दीवानी से

कोई आकर कह दे जाने को
मुझमें बैठी अंजानी से

Thursday, March 8, 2018

ग़ज़ल - 58

ख़ुद को आग़ोश-ए-सब्र में पाया
जब ख़ुद को इक क़ब्र में पाया

बड़ी आसानी से लुटा दिया हमने
ता-उम्र था जिसको जब्र में पाया

दुनिया से बिछड़ कर दुनिया में लौटो
धरा ने पानी को अब्र में पाया

Thursday, February 22, 2018

ग़ज़ल - 57

पर्वत ने पुर्वाई चुरा ली
सूरज ने परछाई चुरा ली

मैं तुमसे नाराज़ बोहोत हूँ
तुमने मेरी तन्हाई चुरा ली

ये आईने का तर्जुमा है या
उम्र ने मेरी रानाई चुरा ली

ज़िन्दगी तुझको बनाया हमने
तूने मेरी बनवाई चुरा ली

अहद ने उसकी सब यादों को
जितनी थी बचाई, चुरा ली

कारख़ानों ने किसी का बचपन
चूड़ियों ने बीनाई चुरा ली

नज़्मों ने मज़मून चुराये
ग़ज़लों ने रुबाई चुरा ली

शहरों ने घर तक़सीम कर दिए
बच्चों ने शनासाई चुरा ली

किताबों ने तजस्सुस चुराया
तर्बियत ने दानाई चुरा ली

कौमें सदा हम-क़दम रहीं हैं
सियासत ने हम-नवाई चुरा ली

Tuesday, February 20, 2018

ग़ज़ल - 56

ये जो आदमी मंज़िल से पहले रुक जाता है
गोया सहर से पहले दीपक बुझ जाता है

हौसले जब इरादों की शमशीर उठा लेते हैं
शिकस्त ख़ुद ज़फर के आगे झुक जाता है

संजीदगी से न लो दुनिया-ए-फ़ानी को
समय का खेला है, चुक जाता है

Friday, February 16, 2018

ग़ज़ल - 55

मेरे अंदर की तीरगी देखो
रात बिस्तर में पड़ी देखो

सुबह आफ़ताब आने वाला है
रात निकलने को खड़ी देखो

सहर-ए-फ़ुर्क़त है फ़ुर्क़त-ए-शब
कैसे जुड़ रही कड़ी देखो

फिर उसके आने की हसरत में
बस घड़ी-घड़ी घड़ी देखो

मेरा गुरूर ही है मिल्कियत मेरी
मेरे आँसुओं की लड़ी देखो

मलबा-ए-इश्क़ से बनी इमारत तुम
बस खड़ी-खड़ी खड़ी देखो

हैरत तो ये तेरे ज़ियाँ की कहानी
मेरे हादसे से बड़ी देखो

Friday, February 9, 2018

ग़ज़ल - 54

बे-दिली की यूँ इंतिहा करता हूँ
ख़ुशबू निचोड़ के हवा करता हूँ

पहलू-ए-दर्द से शहर भर में
मर्ज़-ए-ख़ुशी की दवा करता हूँ

तन्हाई-पसंदी का आलम तो ये है
अपने साये से भी मैं गिला करता हूँ

दिल, आँखें, दर्द, आँसू, कोई नहीं सुनता मेरी
मैं अपने बदन का बादशाह हुआ करता हूँ

मुझसे वाबस्ता हैं मेरे काशाना-ए-दर-ओ-दीवार
ये मुझको और मैं इनको रात भर तका करता हूँ

शाम आता हूँ घर तो शक करती है उदासी मेरी
मैं अक्सर ख़ुशी के साथ मुँह काला किया करता हूँ

Wednesday, February 7, 2018

अकेले शेर - 8

लोग सफ़र में रखते हैं कुछ रहस्यमयी किताबें
हम अपनी ज़िन्दगी की कहानियाँ लिए चलते हैं

Wednesday, January 24, 2018

ग़ज़ल - 53

ये जो चेहरे से तुमने चुनरी ढलती कर दी
बस उसी जगह पे तुमने गलती कर दी

एक सैलाब-ए-हुस्न सीने में उभर आया
और उसने धड़कनें मचलती कर दीं

किसी गुल की तरह छू कर गुज़रा लम्स तुम्हारा
और शिकम में तितलियाँ उछलती कर दीं

बदन के जैसे हो कुंदन दमकता रश्मियों में
के जैसे अक्स में हो चाँदनी पिघलती कर दी

अभी तो और करीब आना था तुमको
तुमने दूर जाने में जल्दी कर दी

Monday, January 22, 2018

ग़ज़ल - 52

अपनी लग़्ज़िशों का ज़िन्दान तुम भी हो
इंसान हम भी हैं इंसान तुम भी हो

नक़ाब-ए-तबस्सुम, लिबास-ए-बहबूद के पीछे
उर्यान हम भी हैं उर्यान तुम भी हो

ये जो जकड़े गए हैं ज़ंजीर-ए-अशराफ़ में वगरना
शैतान हम भी हैं शैतान तुम भी हो

कभी दीवाने थे जो अब इक दूसरे का
इम्तिहान हम भी हैं इम्तिहान तुम भी हो

ता-क़यामत जो दिल में ज़ब्त रहेंगे उन असरारों के
पास-बान हम भी हैं पास-बान तुम भी हो

न जाने क्यूँ समझ आती नहीं तर्ज़-ए-बयानी
हम-ज़बान हम भी हैं हम-ज़बान तुम भी हो

तुम सब भुला चुकी मुझको सब याद है
हैरान हम भी हैं हैरान तुम भी हो

है ख़्वाहिश कि पा लूँ जो पहलू में नहीं है
नादान हम भी हैं नादान तुम भी हो

इतना अहम क्यों सुपुर्द-ए-ख़ाक का
सामान हम भी हैं सामान तुम भी हो

किस चीज़ को अपना कहें जहान-ए-ख़ुदा में
मेहमान हम भी हैं मेहमान तुम भी हो

इंसानी ज़ात से उठकर मसीहा होने का
इम्कान हम भी हैं इम्कान तुम भी हो

अभी तो रवाँ है नफ़स में खुमारी
जवान हम भी हैं जवान तुम भी हो

Thursday, January 18, 2018

ग़ज़ल - 51

ज़ेहनी साँचों में अटकता जा रहा हूँ
सबके दिलों में खटकता जा रहा हूँ

हर सम्त से आ रही है खुशबू
कू-ब-कू भटकता जा रहा हूँ

उछलकर जो जुगनूँ पकड़ने चला था
हवा में लटकता जा रहा हूँ

यादों की कपास चिपकती है दामन पर
मैं दामन झटकता जा रहा हूँ

निशान

याद है तुम्हें
मैं कितना लापरवाह हुआ करता था
किसी भी चीज़ को कहीं से उठाकर कहीं रख देना
और तुम उतनी ही सुलझी हुई
तरतीब से रहने वाली
हर चीज़ को उसकी सही जगह पर सजा कर रखती थी

तुम्हारी एक आदत थी
तुम अक्सर अपनी चीज़ों पे कोई निशान बना दिया करती थी
ताकि तुम उसे आसानी से ढूंढ़ पाओ
वो दूसरों की चीज़ों में मिल न जाए
कोई और उसपर अपना दावा ना कर सके

कभी नाख़ून से कोई हर्फ़ गोद देना
कभी कोई रंग लगाकर छोड़ देना

तुमने कुछ निशान छोड़े हैं मेरी रूह पर भी
पर कभी मुझे ढूंढ़ने नहीं आई
कभी मुझपर दावा नहीं किया

अब वक्त उन निशानों को मिटा रहा है
और मैं डर रहा हूँ
कहीं मैं अपनी पहचान खो न दूँ

आकर देखो तो कभी तुम
रूह लावारिस बैठी है मेरे अंदर
नए निशानों की मुंतज़िर

Friday, January 12, 2018

ग़ज़ल - 50

जब धड़कन के साज़ मिलेंगे
सुरमई सी आवाज़ मिलेंगे

फ़लक सरीखी ग़ज़ल बनेगी
लफ़्ज़ों को परवाज़ मिलेंगे

किसी फ़क़ीर की मस्ती देखो
जीने के अंदाज़ मिलेंगे

अहल-ए-दुनिया की मत सोचो
लोग तो बस नाराज़ मिलेंगे

अपने ज़मीर की बातें सुनना
हम तुमको आवाज़ मिलेंगे

कैसे जान पे बन आती है
इश्क़ में डूबो, राज़ मिलेंगे

मेरी ग़ज़लों में ब-ज़ाहिर
उसके ही अल्फ़ाज़ मिलेंगे

मज़लूमी आँखों में झाँको
इंक़लाबी आग़ाज़ मिलेंगे

चश्म-ए-तअ'स्सुब हटाकर देखो
लोग बोहोत मुमताज़ मिलेंगे

Tuesday, January 9, 2018

समंदर

याद है तुम्हें
हम दोनों अक्सर शाम के वक़्त समंदर के तट पर मिला करते थे
और किनारे के पानी में खड़े होकर, एक दूसरे का हाथ थामे, आँखें मूंद लिया करते थे

हर लहर के साथ पाँव के नीचे की रेत खिसकती रहती
और हमें लगता कि जैसे हम किसी जहाज़ पर हिलोरे खाते शून्य की ओर बढ़ रहे हों
चाँद का गुरुत्व स्वतः ही खींच लिए जा रहा हो

तुम अक्सर डर जाया करती और आँखें खोलने की बात कहती -
"कहीं हम बोहोत अंदर तो नही आ गए? कहीं हम रेत में धस तो नहीं रहे?"
"तुम्हें मुझपर भरोसा नहीं है?"
"बिल्कुल नहीं"
पर फिर भी तुम आँखें नहीं खोलती
उस उन्माद, उस भ्रम को हम दोनों खोना नहीं चाहते थे

लहरों की लयबद्ध ध्वनि हम में एक ऐसा सामंजस्य पैदा कर देती,
जैसे किसी तानपुरे की तान से झंकृत होकर हम उपसमाधि की ओर बढ़ रहे हों

पर तुम्हे मालूम है, मैं आँखें खोला करता था, बीच बीच में
यह देखने के लिए नहीं कि हम कितने पानी में आ चुके हैं
केवल तुम्हें देखने के लिए, शफ़क़ चाँदनी में

फिर किसी रोज़ इक तेज़ झोंके की लहर आयी
और हाथ छूठ गए
रात अमावस की थी
हम किनारे से काफ़ी अंदर आ चुके थे
मैंने बोहोत ढूँढा तुम्हें
न तुम मिली न इससे वापस आने का रास्ता
मैं खोता चला गया

आकार देखो तो कभी तुम
मैं शून्य तक पहुँच चुका हूँ
बोहोत सन्नाटा है यहाँ ।

Thursday, January 4, 2018

ग़ज़ल - 49

बोहोत धीमी है मगर लहकना चाहती है
फ़ित्नागरी आग बनकर दहकना चाहती है

जो अब तक उसूलों के पैरहन में ढकी हुई थी
इक ख़्वाहिश बेबाक बदचलन बहकना चाहती है

सहम-सहम के जो खुलती थी पंखुड़ी हर रोज़
गुलिस्ताँ-ए-फ़ज़ा में रंगीनियत महकना चाहती है

दायरों में सिमट कर जो घूँघट चुप रहते थे
ज़ेहनी-अँधियारों में शोर बन कर गूँजना चाहती है

Tuesday, January 2, 2018

नया साल

वो वर्ष और था, ये साल नया है
गगन में घुलता अरुणिम गुलाल नया है

जो मानव हो तुम तो, जो ठानो वो पा लो
जो गुज़रा वो भूलो, ये सूरत-ए-हाल नया है