Friday, April 6, 2018

ग़ज़ल - 63

शुक्रवार दफ़्तर से घर आता हूँ
जैसे जज़्बातों से भर आता हूँ

कदम ऐसे उछलते जैसे चाँद पर पड़ते हों
अजनबी लोगों से टकराता हूँ, मुस्कुराता हूँ

घर आकर, एक गुनगुनाती हुई चाय बनाकर
शफ़क़ चाँदनी के आग़ोश में बैठ जाता हूँ

कुछ पल को हिरासा आँखें शून्य में तकती हैं
दो एक गीत सुनता हूँ, बीती भुलाता हूँ

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