Monday, November 11, 2019

जल प्रलय

सब दिशाओं से
उमड़ कर आती है
एक वेदना, प्रकृति की
और अपने आँसुओं से पोछती जाती है
हमारी भूलों को

और साथ ही हमें अवगत कराती है
हमारे अस्तित्व की क्षुद्रता से
हमारे अहम की तुच्छता से
बताती है हमें
कि हम बस एक प्रणाली का हिस्सा-मात्र हैं
हम धरती की स्वामी नहीं
अपितु सृष्टि के जीवन पटल पर एक छोटी सी घटना हैं

Tuesday, June 4, 2019

अर्धनारीश्वर

मैं सोचता हूँ कभी
के हम दोनों की परिभाषा
एक स्त्री और एक पुरुष के मिलन की परिभाषा नहीं है
अपितु हमारा साथ होना एक घटना है
जैसे दो बीज मिलकर एक मनुष्य बनते हैं
बीज जो अपनी कोशिकाएं कुछ इस तरह संलग्न कर लेते हैं
जैसे दो अणु एक रसायनिक सम्बंध बनाते हों
हम दोनों एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं
जैसे प्रकृति और पुरुष
जैसे ब्रह्म और माया
तुम एक स्त्रैण अभिव्यक्ति
मैं एक पौरुष प्रस्फुटन
तुम मेरे स्त्रित्व की पूरक
मैं तुम्हारे पुरुषत्व का द्योता
हम दोनों अपने अपने अंदर
अर्धनारीश्वर को परिपूर्ण कर लेते हैं
और अंततः एक ही प्राणी रह जाते हैं

Tuesday, May 21, 2019

प्रतिबिम्ब

मैं सोचता हूँ कभी
ये बदन एक साँचा है
जिसमें रहती है, जीवन की नदी
और ये आँखें एक झरोखा है
जिससे आप देख सकते हैं
नदी के बिल्कुल भीतर
माप सकते हैं इस नदी का सफ़र
इसके भीतर हो रही हर एक हलचल

और यदि एकाग्र होकर देखें तो
दिख जाता है प्रतिबिम्ब, स्वयं का
ब्रह्मांड का
उस तत्व का जिससे हम सब बने हैं

तो अब यदि किसी से मिलें
तो आँखों के भीतर, गहरे देखें
स्वयं से बात करते पाएंगे खुद को

Friday, April 19, 2019

ग़ज़ल - 83

ज़िन्दगी कभी हमने जी ही नहीं है
यानी शराब कभी पी ही नहीं है

पूनम की रातों में नदी की सतह पर
उस महवश की सूरत दिखी ही नहीं है

ऐ सूरज ये तुझपे है इल्ज़ाम मेरा
चरागों को मिरे आतिश दी ही नहीं है

तन्हाई का मुजरिम हूँ सज़ा है सफ़र की
पर ख़ता ये तो हमने ख़ुद की ही नहीं है

Sunday, March 3, 2019

अकेले शेर - 25

आँखों से बहता लहू जिसके वो वीर चाहिए
सतलज की धार बे-सुर्ख़ वो तस्वीर चाहिए

कश्यप का 'कश्यप-पुर', ख़ुसरो का 'फ़िरदौस'
भारत के माथे पर दाएम कश्मीर चाहिए

Friday, February 22, 2019

ग़ज़ल - 82

बूढ़े शजर पर आओ घर बनाते हैं
पत्ते इकठ्ठे कर कर पर बनाते हैं

अपनी आँखों पे डाल कर तअस्सुब की पट्टी
शफ़क़ रौशनी में अंधेरे का डर बनाते हैं

ज़ेर-ए-शब तीरगी में सैकड़ों जुगनू
अपनी रौशनी जोड़ कर सहर बनाते हैं

अमन के समंदर में ये दहशत-फ़रोश
सफ़ीने डूब जाएँ ऐसी लहर बनाते हैं

Sunday, October 28, 2018

अकेले शेर - 24

अमन का इक पैग़ाम लिखकर मज़हब पर इल्ज़ाम लिखा
ख़ुदा लिखा पाली में हमने उर्दू में है राम लिखा

सत्य है अल्लाह सत्य है ईश्वर सत्य है जिसकी खोज में तुम
मंज़िल को बस सत्य लिखा है रहगुज़र को बदनाम लिखा

Wednesday, October 24, 2018

ग़ज़ल - 81

वो है एक बदगुमानी, और क्या है
मेरे ख़्वाबों से छेड़खानी और क्या है

सुबह दफ़्तर, शाम को घर
रोज़मर्रा की परेशानी और क्या है

सारी आरज़ू-ओ-आबरू-ओ-जुस्तजू लूटकर
पूछते हैं वो जानी, और क्या है

मुझको छूकर अक्सर जल जाया करते हैं
राख में अंगारे की निशानी और क्या है

सच देखती है सच बोल नहीं सकती
इक कलम की बेज़ुबानी और क्या है

बे-वक़्त बोलना, बे-वक़्त चुप रहना
ज़िन्दगी की पशीमानी और क्या है

'जौन' से आख़िरी बार मिली वो कहकर
इश्क़ जावेदानी है, और क्या है

Thursday, October 11, 2018

अकेले शेर - 23

बीमार हैं चारासाज़ी के ग़ुलाम हैं
हम फ़क़त अपने माज़ी के ग़ुलाम हैं

हारने वालों ने घुटने नहीं टेके
जीतने वाले बाज़ी के ग़ुलाम हैं

Tuesday, October 9, 2018

जन्मदिन

जन्मदिन, एक और दिन...
पर मैं तो गर्भ में भी ज़िंदा था
क्या उस दिन मेरा जन्मदिन था जब मैं पहली बार भ्रूण बना
या उस दिन जब उसमें आत्मा प्रविष्ट हुई
या फिर उस दिन जब मैंने पहली बार गर्भ में हरकत की

पर जन्मदिन मेरा है या इस आवरण का जिसे हम शरीर कहते हैं
यह तो इसपे निर्भर करता है कि हम स्वयं को किससे इंगित करते हैं

युग के अंत में सृष्टि की पुनरावृत्ति होती है
तो क्या हर युग की शुरुआत में मेरा जन्मदिन है

पर आत्मा तो युगातीत भी है
तो क्या मेरा जन्म रचयिता का भी जन्मदिन है
क्या हम और रचयिता एक ही हैं?

Sunday, October 7, 2018

ग़ज़ल - 80

बू-ए-ज़मीं से बारिश का पयाम गुज़र जाना
जैसे तेरे लबों से मेरा नाम गुज़र जाना

कटती है कुछ इस तरह ख़्वाबों में ज़िंदगी
नींद में हक़ीक़त का अंजाम गुज़र जाना

कुछ ऐसा है मुझपर तेरे ख़यालों का मो'जिज़ा
मौज-ए-मशक़्क़त में भी आराम गुज़र जाना

देखती हैं उदास आँखें दरवाज़े और दरीचे की
तेरा मेरी गलियों से गुमनाम गुज़र जाना

तेरी सोहबतों में दिन ढले रक़ीब का, और मेरा
तेरे तसव्वुर में बैठना और शाम गुज़र जाना

भला इंसान था मारा गया सियासी उलझनों में
दुनिया में ऐसे वाक़िओं का तमाम गुज़र जाना

Sunday, September 30, 2018

ग़ज़ल - 79

चमन के सभी गुल धानी के नहीं हैं
मेरे ख़यालात सभी मआनी के नहीं हैं

तुझको देख लेता हूँ तो फिर ये सोचता हूँ
मेरे मसलात सभी परेशानी के नहीं है

तूने देखे हैं बोहोत दर्द के मारे हुए लोग
तेरे तजुर्बात मेरी ज़िंदगानी के नहीं हैं

हमने देखा है इक मज़लूम की आँखों में लहू
जहाँ में अश्क़ सभी पानी के नहीं हैं

और वो हँसी ख़ुशी साथ रहने लगते हैं
ऐसे वाक़िए मेरी कहानी के नहीं हैं

Friday, September 21, 2018

अकेले शेर - 22

दिल ने फिर से कर दी इक अय्यारी है
शायद पूरी मरने की तय्यारी है

मुझको इश्क़ दोबारा हो चला है
मुझको एक जानलेवा बीमारी है

Thursday, September 20, 2018

अकेले शेर - 21

मेरी दास्तान-ए-ज़िन्दगी की बस यही तस्वीर है
मैं तेरा किरदार हूँ पर तू मेरी तहरीर है

इस दास्ताँ में चल रहीं हैं दो कहानियाँ बराबर
इक मेरी ताबीर है और इक तेरी तक़दीर है

Wednesday, September 12, 2018

अकेले शेर - 20

सिर्फ़ मुद्दे उठाना ही उनका इरादा है
सवाल की अहमियत जवाब से ज़्यादा है

इक तरफ़ वंश का स्थापत्य उनका सत्य है
इक तरफ़ देखिए तो राजा ख़ुद प्यादा है