Friday, April 20, 2018

ग़ज़ल - 65

शब ही जैसे सुब्ह की तक़दीर है
वस्ल जैसे हिज्र की तामीर है

कर रही बीमार मुझको दम-ब-दम
मुझपे तेरे जिस्म की तासीर है

इतना बोझल हो के डूबा आफ़ताब
जैसे इसके दिल में कोई पीर है

मुझको बढ़ाकर हाथ क्यूँ छूते नहीं
बोलती मुझसे तेरी तस्वीर है

कितनी बेताबी है सीने में जहाँ के
जैसे किसी के वीरानगी की ताबीर है

चप्पे-चप्पे ग़फ़लतों के इस समर में
इल्म ही गोया मेरी शमशीर है

No comments:

Post a Comment