Monday, July 23, 2018

ग़ज़ल - 74

अपनी ख़ुशबू अपनी रवानी भूल गए
शहर आकर ज़िंदगानी भूल गए

यहाँ बाद-ए-सबा भी है अज़ाब-गाह
हम गाँव का मीठा पानी भूल गए

बंद-बदरंग कमरों में सर खपाते हैं
वो पेड़ धानी और धूप जाफ़रानी भूल गए

अपनी जड़ों से दूर स्वावलंबन में रहते हैं
अपने बुज़ुर्गों की निगहबानी भूल गए

प्रकृति पर बे-इंतिहा ज़ुल्म ढाते हैं
ख़ुदपर कायनात की मेहरबानी भूल गए

अरमानों के समझौते को ज़िन्दगी समझ बैठे
हम जैसे ज़िंदा रहने के मआनी भूल गए

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अपनी ख़ुशबू अपनी रवानी भूल गए
शहर आकर ज़िंदगानी भूल गए

यहाँ बाद-ए-सबा भी है अज़ाब-गाह
हम गाँव का मीठा पानी भूल गए

बंद कमरों में सर खपाते हैं
नर्म घास पे फ़ुर्सत की छाँव भूल गए

ज़िन्दगी कुछ नही जुज़ सफ़रनामा है
बढ़ते रहने की ललक में सफ़र को ही भूल गए

शौक़ बेशक़ीमती हैं, हर पल की क़ीमत है
अरमाँ तो सारे अब फंदों पे झूल गए

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