फ़ज़ा की शफ़क़ रौशनी में घुल जाऊँ
मैं इस तरह अपनी तीरगी को उलझाऊँ
न सिरें हैं हासिल न गिरहें काबिज़
ज़िन्दगी तुझे मैं किस तरह सुलझाऊँ
आफ़ताब अपनो मुठ्ठी में भींच लूँ
पर खलाओं से निकलती किरणें कैसे बुझाऊँ
इक पुरानी याद सा आँखों में आकर
इतना बरस लूँ के धुल जाऊँ
तू अपनी ज़ंजीर में जकड़ तो ले मुझे
पर ऐसे बाँधना के फिर खुल जाऊँ
तुझपे फूल डालूँ तेरी इबादत करूँ
मैं नहीं जानता तुझे कैसे रिझाऊँ
खुशी हो तो इतनी के आँसू छलकें
दर्द हो तो महज़ इतना के मर जाऊँ
मैं इस तरह अपनी तीरगी को उलझाऊँ
न सिरें हैं हासिल न गिरहें काबिज़
ज़िन्दगी तुझे मैं किस तरह सुलझाऊँ
आफ़ताब अपनो मुठ्ठी में भींच लूँ
पर खलाओं से निकलती किरणें कैसे बुझाऊँ
इक पुरानी याद सा आँखों में आकर
इतना बरस लूँ के धुल जाऊँ
तू अपनी ज़ंजीर में जकड़ तो ले मुझे
पर ऐसे बाँधना के फिर खुल जाऊँ
तुझपे फूल डालूँ तेरी इबादत करूँ
मैं नहीं जानता तुझे कैसे रिझाऊँ
खुशी हो तो इतनी के आँसू छलकें
दर्द हो तो महज़ इतना के मर जाऊँ
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