Monday, March 26, 2018

ग़ज़ल - 61

इस तरह अपनी शख़्सियत को फ़ाज़िल बनाया
जिधर को बह रही नदी उसे मंज़िल बनाया

ख़्वाहिशें मार कर लाशों की इक कश्ती बनायी
जहाँ पे कम हुआ पानी उसे साहिल बनाया

बोहोत अरसा हुआ है यार की दस्तरस में बैठे
मुद्दत हुई दो जिस्म जोड़कर दिल बनाया

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