Wednesday, March 28, 2018

ग़ज़ल - 62

दो जहान में पड़ी ज़िन्दगी
हाशिये पर खड़ी ज़िन्दगी

तिश्नगी का इक सफ़ीना
मझधार में पड़ी ज़िन्दगी

बुझते दिये सी फड़फड़ाई
हवाओं से लड़ी ज़िन्दगी

इंसानों से पार हो गयी
सायों से लड़ी ज़िन्दगी

उम्र के साथ मौत भी लायी
जाने कैसी हड़बड़ी ज़िन्दगी

खुशबू से न गुल की ज़ीनत
न होती छोटी बड़ी ज़िन्दगी

माँ के आँचल से लिपट के रोई
खुशियों की झड़ी ज़िन्दगी

घड़ी की सुइयाँ कर रहीं टिक टिक
पल पल गुज़र रही ज़िन्दगी

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