Wednesday, January 24, 2018

ग़ज़ल - 53

ये जो चेहरे से तुमने चुनरी ढलती कर दी
बस उसी जगह पे तुमने गलती कर दी

एक सैलाब-ए-हुस्न सीने में उभर आया
और उसने धड़कनें मचलती कर दीं

किसी गुल की तरह छू कर गुज़रा लम्स तुम्हारा
और शिकम में तितलियाँ उछलती कर दीं

बदन के जैसे हो कुंदन दमकता रश्मियों में
के जैसे अक्स में हो चाँदनी पिघलती कर दी

अभी तो और करीब आना था तुमको
तुमने दूर जाने में जल्दी कर दी

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