Thursday, January 18, 2018

निशान

याद है तुम्हें
मैं कितना लापरवाह हुआ करता था
किसी भी चीज़ को कहीं से उठाकर कहीं रख देना
और तुम उतनी ही सुलझी हुई
तरतीब से रहने वाली
हर चीज़ को उसकी सही जगह पर सजा कर रखती थी

तुम्हारी एक आदत थी
तुम अक्सर अपनी चीज़ों पे कोई निशान बना दिया करती थी
ताकि तुम उसे आसानी से ढूंढ़ पाओ
वो दूसरों की चीज़ों में मिल न जाए
कोई और उसपर अपना दावा ना कर सके

कभी नाख़ून से कोई हर्फ़ गोद देना
कभी कोई रंग लगाकर छोड़ देना

तुमने कुछ निशान छोड़े हैं मेरी रूह पर भी
पर कभी मुझे ढूंढ़ने नहीं आई
कभी मुझपर दावा नहीं किया

अब वक्त उन निशानों को मिटा रहा है
और मैं डर रहा हूँ
कहीं मैं अपनी पहचान खो न दूँ

आकर देखो तो कभी तुम
रूह लावारिस बैठी है मेरे अंदर
नए निशानों की मुंतज़िर

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