बोहोत धीमी है मगर लहकना चाहती है
फ़ित्नागरी आग बनकर दहकना चाहती है
जो अब तक उसूलों के पैरहन में ढकी हुई थी
इक ख़्वाहिश बेबाक बदचलन बहकना चाहती है
सहम-सहम के जो खुलती थी पंखुड़ी हर रोज़
गुलिस्ताँ-ए-फ़ज़ा में रंगीनियत महकना चाहती है
दायरों में सिमट कर जो घूँघट चुप रहते थे
ज़ेहनी-अँधियारों में शोर बन कर गूँजना चाहती है
फ़ित्नागरी आग बनकर दहकना चाहती है
जो अब तक उसूलों के पैरहन में ढकी हुई थी
इक ख़्वाहिश बेबाक बदचलन बहकना चाहती है
सहम-सहम के जो खुलती थी पंखुड़ी हर रोज़
गुलिस्ताँ-ए-फ़ज़ा में रंगीनियत महकना चाहती है
दायरों में सिमट कर जो घूँघट चुप रहते थे
ज़ेहनी-अँधियारों में शोर बन कर गूँजना चाहती है
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