Friday, February 9, 2018

ग़ज़ल - 54

बे-दिली की यूँ इंतिहा करता हूँ
ख़ुशबू निचोड़ के हवा करता हूँ

पहलू-ए-दर्द से शहर भर में
मर्ज़-ए-ख़ुशी की दवा करता हूँ

तन्हाई-पसंदी का आलम तो ये है
अपने साये से भी मैं गिला करता हूँ

दिल, आँखें, दर्द, आँसू, कोई नहीं सुनता मेरी
मैं अपने बदन का बादशाह हुआ करता हूँ

मुझसे वाबस्ता हैं मेरे काशाना-ए-दर-ओ-दीवार
ये मुझको और मैं इनको रात भर तका करता हूँ

शाम आता हूँ घर तो शक करती है उदासी मेरी
मैं अक्सर ख़ुशी के साथ मुँह काला किया करता हूँ

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