Monday, September 3, 2018

ग़ज़ल - 78

गोशे-गोशे में मचलती है
वो ख़ुशबू कहाँ सँभलती है

उसके साँसों की हरारत से
सीने की बर्फ़ पिघलती है

मेरे होंठों से लग कर वो
मेरे अंतस में फिसलती है

मैं उसके क़रीब आ जाता हूँ
जब दिन होता, शामें ढलती हैं

#चाय

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