Wednesday, December 27, 2017

ग़ज़ल - 48

अगरचे मुझे हासिल तेरे नक़्श-ए-पा भी नहीं
ये मेरे शौक की क़ज़ा भी नहीं

हयात दोनों को बर-अक्स लिए जाती है
और इसमें दोनों की रज़ा भी नहीं

मौत भी कम कोई ग़नीमत है
ज़िन्दगी कम कोई सज़ा भी नहीं

तुझसे मसाइल ख़त्म किये जा सकते हैं
अव्वल तो मुश्किल नहीं और मज़ा भी नहीं

Saturday, December 23, 2017

ग़ज़ल - 47

तेरी कू में रूह बस्ती है
बड़ी दिलचस्प फ़ाक़ा-परस्ती है

तेरे जाने से चली जाती है
जान जानाँ इतनी सस्ती है

ज़िन्दान-ए-मोहब्बत के बाहर
आख़िर हमारी क्या हस्ती है

तेरे आगे बिल्कुल बेबस हैं
तेरे दीदों की ज़बरदस्ती है

वो तेरा मुश्क, वो प्याला-ए-नाफ़
कैसी शराब और कैसी मस्ती है

Thursday, December 21, 2017

ग़ज़ल - 46

जितना तुझपर वक़्त बिताया करते हैं
उतना ज़्यादा ख़ुद को ज़ाया करते हैं

हम हाथों से जिनको खोते रहते हैं
हम ख़्वाबों में उनको पाया करते हैं

जाने दस्तक देकर कौन चला जाता है
हम कमरों से बाहर आया करते हैं

तुझको छूकर अंगड़ाई लेती है हवा
खुशबू खुशबू मौसम गाया करते हैं

जिस मौज़ू को पहले मिसरे में ढँकते हैं
मिसरा-ए-सानी में नुमाया करते हैं

कुछ लोग जहाँ पर अदब की बातें करते हैं
हम हाथों से चावल खाया करते हैं

जिसका दूध पी कर बचपन से बड़े होते हैं
कुछ लोग उस गाय का खून बहाया करते हैं

Tuesday, December 12, 2017

ग़ज़ल - 45

जुगनुओं को चमकने के लिए बस रात काफ़ी है
मैं तन्हा खुश रहता हूँ, ये बात काफ़ी है

ता-उम्र उसकी बातों का असर मेरे ज़ेहन में रहा
किसी को छू लेने के लिए एक मुलाक़ात काफ़ी है

दुनिया के हर ग़म से बचा कर रखती है
बस इक तेरे ग़म की सौग़ात काफ़ी है

मैं दम भर देख लेता हूँ तो गुल खिल जाते हैं
मेरे सीने में कशिश, दिल में जज़्बात काफ़ी हैं

मुफ़्लिस क्यूँ रोता है, भूखे पेट सोता है
जवाब नहीं चाहिए बस सवालात काफ़ी हैं

Tuesday, December 5, 2017

ग़ज़ल - 44

मेरे रंग-ओ-बू-ओ-लज़्ज़त का सबक तुम बनो
मेरी ज़िंदगी की चाय का अदरक तुम बनो

न लौंग, न इलाइची, न अजवाइन, न दालचीनी
मेरे ज़ौक़-ए-ज़िंदगी का फ़क़त हक़ तुम बनो

बस हम और तुम और कुछ पत्ते और शीरीं
मुझमे ऐसे घुल जाओ के कड़क तुम बनो

Monday, December 4, 2017

ग़ज़ल - 43

दिल में जो इक रंज है उसको कभी कहा नहीं
हाँ मगर तुम क्या समझोगे तुमने कभी सहा नहीं

मैं के जो इक जिस्म हूँ मुझको बदलते रहते हो
तुम कोई रूह हो जिसकी कोई इंतिहा नहीं

मैं तुम्हारा नसीब नहीं जो मुझको बिगाड़ सकोगे तुम
मैं तो बस एक ख़्याल हूँ जो टिक कर कभी रहा नहीं

तेरे सामने से हट जाऊँगा गर ये गुमाँ हो जाएगा
मैं जिधर देख रहा हूँ तुम दर-असल वहाँ नहीं

चीख़ कर पुकारती है हर फ़ाक़ा-परस्त की नज़र
दौलत का इस्तेमाल कर दौलत में नहा नहीं

Saturday, November 25, 2017

ग़ज़ल - 42

हर तिजारत में नफ़ा नहीं होता
अहल-ए-दिल अहल-ए-वफ़ा नहीं होता

जितना सादा पहली बार होता है
इश्क़ वैसा हर दफ़ा नहीं होता

बोहोत चाक हैं इसपे खूँ-ए-कलम से
इतना कोरा तो दिल का सफ़्हा नहीं होता

अच्छा तुम्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता?
चलो मैं तुमसे ख़फ़ा नहीं होता

तेरे तग़ाफ़ुल पे मोमिन ने कहा होगा
"सनम आखिर ख़ुदा नहीं होता"

Thursday, November 23, 2017

ग़ज़ल - 41

कुछ इस तरह अपने वजूद का बटवारा होगा
ज़मीन मेरी होगी समंदर तुम्हारा होगा

मैं अपने बाम से लेता रहूँगा ख़ुशबू तुम्हारी
नज़रों की हद तक मुझे तेरा नज़ारा होगा

तू दम्भ न भर मुझसे कुशादा होने का
तेरी गहराइयों में भी वर्चस्व हमारा होगा

मैं दिन की धूप में लूँगा तेरी सबा का लुत्फ़
तुझे रातों में मेरी सर्द आहों का सहारा होगा

तुम पढ़ लेना मेरे भेजे हुए ख़त सारे
साहिल पे उंगलियों से लिखा पैगाम हमारा होगा

तुम्हारी बड़बड़ाहट सुनता रहूँगा लहरों से
कहीं इस कोलाहल में तुमने मुझे पुकारा होगा

मैं लेट जाऊँगा किनारे पर लहरों की ओर सर करके
तुमने शायद पहले भी मेरी ज़ुल्फ़ों को सँवारा होगा

तुम आना कभी मेरे घर ज्वार-भाटों की नौका पर
माहताब मैंने उस दिन अपने आँगन में उतारा होगा

तुम्हारी कलरव से बना लूँगा मैं धुन कोई
तरन्नुम पे ग़ज़ल का लुत्फ़ बड़ा प्यारा होगा

जब-जब तुम्हारे तिश्ना-लब मुझको कभी पुकारेंगे
मैंने ख़ुद को समंदर में बिना कश्ती उतारा होगा

मुंतज़िर क़यामत का हूँ जब एक हो जाएँगे हम
तुझमे समा जाऊँगा बस जान का ख़सारा होगा

Saturday, November 18, 2017

ग़ज़ल - 40

इमकानों के बीज बोने दो
जो हो रहा है होने दो

लब क़रीब आ रहे आने दो
नये ज़ख्म लहू में पिरोने दो

मेरा पैमाना क्यों खींचा
जाम तो खाली होने दो

जज़्बा-ए-दिल अश्कों से सींचो
हम बंजर-दिल हमें रोने दो

जिनकी रात गुज़री वो उठ जाएँ
अभी दिन हुआ है मुझे सोने दो

Wednesday, November 15, 2017

ग़ज़ल - 39

ये जो रात होती है काली क्यूँ होती है
मेरे ज़ेहन की हर बात बेख़याली क्यूँ होती है

धरती के हिस्से ने मुँह फेरा है सूरज से
पर मेरे आफ़ताब की जगह खाली क्यूँ होती है

मेरी हर चीख़ गिला बन जाती है
तेरी हर आह रुदाली क्यूँ होती है

मेरे इश्क़ में शाम ग़ज़ल होती है
तेरे इश्क़ में रात क़व्वाली क्यूँ होती है

Tuesday, November 14, 2017

ग़ज़ल - 38

एक शख़्स है जो दिल की हर बात समझता है
हाँ मगर चुप रहता है जज़्बात समझता है

जो पूछता हूँ उससे क्या हाल है मेरा
मुस्कुरा देता है मेरी ज़ात समझता है

खुशी-खुशी सुनता है मेरे बहके-बहके शेर
डर जाता है जब मेरे अल्फ़ाज़ समझता है

दाद देते हैं दोनो बा-कमाल ख़राबी की
मैं दिल को वो मुझको बर्बाद समझता है

Wednesday, November 8, 2017

ग़ज़ल - 37

सारी ज़िन्दगी किसी के नाम करके
कोई जा रहा है ख़ुद को ग़ुलाम करके

बे-अदब सा आया था दुनिया में
जा रहा है सबको सलाम करके

वो उसकी कहानी कह रहा है
अपने ज़ख्मों को सर-ए-आम करके

तेरे ख़्याल क्यूँ कहीं नहीं जाते
मैं तो घर आता हूँ अपना काम करके

Friday, November 3, 2017

ग़ज़ल - 36

सारी हदें पार कर गया हूँ
तेरे जाने के बाद सुधर गया हूँ

वो जो कर रहे हैं मेरे हक़ में बातें
उनकी हर बात से मुकर गया हूँ

तेरी अंजुमन में बैठा हूँ
चाँदनी में निखर गया हूँ

जुगनुओं से लड़ता रहा हूँ
तीरगी से भर गया हूँ

शब गुज़ार ली अब चलता हूँ
जितना खाली था उतना भर गया हूँ

फिर तुझपे भरोसा कर लिया
तो क्या नया कर गया हूँ

डूबते वक़्त तेरी कश्ती देखी
चलते पानी में ठहर गया हूँ

क्या वजह है अहद-ए-सफ़र में
मुझे तुम मिले हो जिधर गया हूँ

देखने वाले देखते रहें मुझको
दुनिया-ए-ज़ात से उबर गया हूँ

आखिरी ग़ज़ल लिख रहा हूँ
ग़ज़लकारी से तर गया हूँ

अकेले शेर - 7


ज़िन्दगी कुछ नहीं जुज़ दरिया-ए-पानी है
मौज है उठती है चली जानी है

हस्ती जिस्म है, यादें रूह है
जिस्म गुज़र जाते हैं रूह लाफ़ानी है

Thursday, November 2, 2017

ग़ज़ल - 35

मेरी फ़िक्र करने की तुम्हें ज़रूरत नहीं है
जुदा होकर जीने की कोई सूरत नहीं है

जो गुज़री है शब वो हम दोनो की थी
और उस शब से ज़्यादा कुछ खूबसूरत नहीं है

देख ली मैंनें तेरी वादा-निबाही
और उससे ज़्यादा कुछ बदसूरत नहीं है

मौत हर दिन क़रीब आती जाती है
इंसान है तू पत्थर की मूरत नहीं है

हिज्र ख़ुद-कुश है पर मैं नहीं हूँ
इश्क़ जावेदानी है पर तू नहीं है

Tuesday, October 24, 2017

ग़ज़ल - 34

ज़ुल्मत-कदे में गोया चिंगारी ले कर के पहुँचे
कुछ लोग दुनिया में ईमानदारी ले कर के पहुँचे

दुनिया-ए-राह में अक्सर पिछड़ जाते हैं वो लोग
अपने उसूलों का बोझ जो बोहोत भारी ले कर के पहुँचे

लगा है ताँता यहाँ आज़ादी के खरीददारों का
नुमाइश में सब अपनी-अपनी बारी ले कर के पहुँचे

तुझको रुख़्सत किया खुद से ज़माने की दुहाई देकर
मक़ाम-ए-इश्क़ पे हम अपनी लाचारी ले कर के पहुँचे

बे-तकल्लुफ़ लहज़ा, बिखरी ज़ुल्फ़ें, सादा पैरहन
तुझको खबर नहीं हम कितनी बेक़रारी ले कर के पहुँचे

अजनबी लोगों में भी अपनापन ढूंढ लेते हैं
नये शहर में हम तस्वीर तुम्हारी ले कर के पहुँचे

Sunday, October 22, 2017

ग़ज़ल - 33

मेरा है ये तेरा बदन नहीं
आहिस्ता-आहिस्ता आओ दफ़अतन नहीं

संभलने का वक़्त मिल जाए मुझे
दायम याद करने का मन नहीं

मस्त रहती हो, सैर करती हो
सीना है मेरा चमन नहीं

मेरी बाहों में होने से गुरेज़ तुम्हें
दम घोंटती है पर ये कफ़न नहीं

Wednesday, October 18, 2017

दीवाली

जो दीप सदा उदीप्त रहे उस कुंदन-लौ सा जलना है
इस दीवाली राम सरीखे स्व-कुटुंब को चलना है

हम पर्वों के धर्म-रीति के साथ प्रतीकों को समझें
काम क्रोध मद लोभ तमस का वध कर निश्छल बनना है

Monday, October 16, 2017

ग़ज़ल - 32

चलते-चलते यूँ ही रुक जाता हूँ
रुकते-रुकते आगे बढ़ जाता हूँ

मुझसे सब बचकर निकल जाते हैं
फ़रियादी दुनिया को नज़र आता हूँ

सारा कमरा उजाड़ देता हूँ
बेतरतीबी में सुकून पाता हूँ

मेरी सदाएँ नहीं पहुँचती तुम तक
मैं अपने शेरों से तुम्हें बुलाता हूँ

"जा जा जा जा बेवफ़ा"
बेख़याली में अक्सर गुनगुनाता हूँ

एक चीज़ को एक बार ही करता हूँ
धोखा हर बार नया खाता हूँ

Saturday, October 14, 2017

ग़ज़ल - 31

क़तरा-क़तरा तिश्नगी से भर जाइये
हर तरफ़ सहरा है किधर जाइये

आपको देखकर क़ाबू में नहीं हैं
मुमकिन है आप हमसे डर जाइये

ख़ुशबू पैरहन में ओढ़कर मिलने गये
और वो कहते हैं थोड़ा सँवर जाइये

वो इठलाना, वो गुंजाना, वो उड़ जाना
कोई तितलियों से कह दो सुधर जाइये

बेवजह गिला करना उनकी आदत है
दुनिया इतनी ख़राब है तो मर जाइये

Friday, October 13, 2017

ग़ज़ल - 30

लम्हा लम्हा कट रही है
ज़िन्दगी जैसे बट रही है

मेरे ख़्वाब तेरे साये से लिपटे
मेरी हद तेरी चौखट रही है

तू मेरी बाहों में भी
किसी और से लिपट रही है

दफ़अतन तेरे क़रीब आता हूँ
तू मेरे सामने से हट रही है

आहिस्ता-आहिस्ता ख़्वाब दूर हो रहा है
तू मेरे अंदर भी सिमट रही है

तेरा अक्स दरिया-ए-सराब था
धुंध जैसे छट रही है

तसव्वुर में तेरा शमीम-ए-बदन
पलक आंखों से सट रही है

मोहब्बत का तेरे मक़बरा है
ज़िन्दगी जैसे मरघट रही है

रात बड़ी बेचैन गुज़री क्या
चादरों पे सिलवट रही है

आइना लेकर खड़ी रहती है
ज़िंदगी बड़ी मुँहफट रही है

Wednesday, October 11, 2017

ग़ज़ल - 29

वो शराब सबमें बाँट देता है
ज़हर को ज़हर काट देता है

खुशियों की गर्द उड़ रही है क्या
आँसू भी मिट्टी पाट देता है

इतना आसाँ नहीं होता वापस जाना
रिश्ता टूट कर जुड़ता है तो गाँठ देता है

ख़ुदा भी अपने बंदों में फ़र्क़ करता है
सबको चुनता है मुझको छाँट देता है

Tuesday, October 10, 2017

ख़त

याद है तुम्हें
वो हमारे बीच ख़तों का सिलसिला
वो भी क्या दौर था
कच्चे जज़्बातों का दौर
वो एक खूबसूरत नक़्क़ाशी के काग़ज़ का चुनना
और उसपे इत्र की स्याही से हर्फ़-दर-हर्फ़ ख़्वाबों को उकेरना
हर शब्द में जैसे खुशबू लिखा हो
वो इंतज़ार ख़तों का
वो सब्र का दौर
बोहोत कुछ सिखाता है

हर ख़त के आख़िर में तुम्हारा एक शेर
और मेरे हर ख़त में उसका जवाब
बहर में लिखते-लिखते बोहोत लम्बी ग़ज़ल हो गयी

अब तुम नहीं हो
तो कभी-कभी खोल लेता हूँ उन ख़तों को
उनको हवा तो लगे
शब्द बदले-बदले से मालूम पड़ते हैं
रंग ज़र्द पड़ता दिखाई देता है ख़तों का
ठीक हमारे रिश्ते की तरह
कोई दस्तावेज़ मालूम पड़ते हैं ये, किसी पुरानी सल्तनत के
जिसमे एक राजा और एक रानी हुआ करते थे
मैं पढ़ता हूँ इनको कभी-कभी
लफ्ज़-दर-लफ्ज़ झूठ लिखा है

क्यों छोड़ गई तुम इन्हें मेरे पास
क्या मोहब्बत की वसीयत थे ये ख़त मेरे नाम

आकर ले जाओ कभी तुम
इन मुर्दा ख़तों को

Thursday, September 28, 2017

ग़ज़ल - 28

सीपियों में बंद कोई सितारा करके
ले आओ तुम समंदर से किनारा करके

आसमाँ को रश्क़ होगा हमसे आज
पास मेरे तुम रहो शरारा करके

मुझको अपने आगोश में लौट जाने दो
ले आऊंगा ख़ुद को मैं तुम्हारा करके

बहकने की इजाज़त चाहता हूँ तुमसे
और फिर जो तुम कहो गवारा करके

कायनात सो चुकी मैं भी सो जाऊंगा
कुछ देर तुम्हारे रुख़ का नज़ारा करके

महफ़िलों में जी नहीं लगता मेरा
तुम मुझे बुला लेना इशारा करके

जाते वक्त यक़ीनन दोनो रो पड़ेंगे
आँसुओं से आँसुओं को खारा करके

फिर तुम्हारी आँख से टपकूँगा मैं
तुम्हारी गोद में इक ख़्वाब प्यारा करके

फिर किसी ज़िन्दगी में हम मिलेंगे
अपने इसी रिश्ते को बहारा करके

Monday, September 25, 2017

कहाँ से हो

कभी कभी सोच में पड़ जाता हूँ
जब कोई पूछता है, कहाँ से हो?

जवानी लख़नऊ की है
बचपन इलाहाबाद का
और जड़ें बिहार की

जड़ें तो अवचेतन में हैं
जवानी जल्दबाज़ी और जुनूनीयत में
बचपन बड़ा सुहाना था।

Saturday, September 23, 2017

ग़ज़ल - 27

ज़बाँ पे रखा हुआ अज़ाब देख लूँ
सोचता हूँ मैं तेरा जवाब देख लूँ

काट डालो मुझको तुम हज़ार टुकड़ों में
चाहता हूँ आज तेरा इंक़लाब देख लूँ

मेरे अंदर का तूफान थम गया है
आ तेरे अंदर का गिर्दाब देख लूँ

दूर से करना मुझसे तिजारती बातें
गिरफ़्त में आ जाऊँगा गर बे-हिजाब देख लूँ

होश जानती है तू नाफ़े का सौदा नहीं
नींद फिर भी चाहेगी तेरा ख़्वाब देख लूँ

रातों में निकलो पर नक़ाबों में ढककर
भेड़िया चाहता है बस माहताब देख लूँ

क्यूँ चर्चा है क्या बात बेख़ुदी में
ला मैं थोड़ी सी शराब देख लूँ

Thursday, September 21, 2017

ग़ज़ल - 26

इक बोझ वो हमसे उठाया न गया
तेरे झूठ का सर से साया न गया

इस तरह तोड़ के सब रिश्ते मैं
ऐसा गया के फिर आया न गया

सारी यादों की पोटली बाँध ली है
सरमाया तुझपे कोई ज़ाया न गया

तुझको रक़ीब की बाहों में जाते देखा
यूँ लब सिले थे के बताया न गया

तुझपर हाथ उठाना मेरी इंतेहा थी
इतना कम-ज़र्फ़ था के मर जाया न गया

Saturday, September 16, 2017

मुम्बई

वो शहर याद आता है

अनवरत चलती रेलों में
मौजों की थपेड़ों में
एक शहर है जो कभी सोता नहीं है
जागते सपनों को कभी खोता नहीं है

ये शहर बोहोत ही अमीर है
यहाँ भेद-भाव की न कोई लकीर है
ये सबको समाविष्ट करती है
हक़ बराबर का सबको देती है

इस शहर के बाशिंदे सब
चैन से सोते हैं
सपनों को हक़ीक़त करने में
पाँव जो थके होते हैं
मुफ़्लिसी हो या लाचारी
यहाँ ख़्वाब बड़े ही होते हैं

यहाँ ज़िन्दगी चलचित्र और नाटक संजीदा हैं
यहाँ इंसान सुलझे पर अरमान पेचीदा हैं

ये शहर नहीं एक जज़्बात है
हर रंग के यहाँ एहसासात हैं

वो एक वैसा शहर याद आता है

Friday, September 15, 2017

बाज़ी

याद है तुम्हें
हम दोनों कितने प्रतिस्पर्धी हुआ करते थे
कोई भी क्षेत्र हो, या कोई खेल हो
स्क्रैबल, पत्ते, कैरम, शतरंज...
तुम्हारे शब्दों की पकड़ तुम्हे स्क्रैबल में काम आती
मेरे हाथों की सफ़ाई पत्तों में
कैरम का शुरू होना मतलब तंज़ और छींटाकशी का दौर
शतरंज में चालें वापस लेने की ज़िद
जीतने की सरगर्मी हम दोनों में रहती

जाने कब ये प्रतिस्पर्धा खेलों से निकल कर हमारी ज़िंदगी में आ गयी
जो बातें हमें एक दूसरे पर गर्व महसूस कराती थीं, अब वो खटकने लग गयीं
एक दूसरे की उप्लब्धियाँ कब अहम को चोट पहुँचाने लग गयीं, पता ही नहीं चला

अब तुम नहीं हो
तो खेल में वो मज़ा नहीं है
वो जुनून, वो मज़ाक, वो ज़ीस्त नहीं है
हाँ रिश्ता अब भी है तुमसे
किसी का साथ न होना उस रिश्ते की अपूर्णता तो नहीं
एक तत्व का रिश्ता अब भी है तुमसे, एक सूक्ष्म सतह पर

अब भी कई बार तुम्हारे साथ कोई बाज़ी खेलता हूँ, अकेले ही
तुम्हारी सब चालें तो पता ही हैं मुझे...
तुमसे अच्छा खेलता हूँ तुम्हारी बाज़ी

आकर देखो तो कभी तुम
कितना हारा हुआ हूँ मैं

Thursday, September 14, 2017

दुआ

याद है तुम्हें
जब भी तुम बीमार पड़ती थी
तो मैं कितना घबरा जाता था
भाग कर दवा लाना, खाना लाना

पर जब मैं बीमार पड़ता था
तुम बिल्कुल शाँत रहती थी
कहती थी - सब ठीक हो जाएगा
और दूसरे कमरे में जाकर
नम आंखों से दुआ करती थी
के मैं जल्दी ठीक हो जाऊँ

अब तुम नहीं हो
तो क्या इतना कर सकती हो -
मेरे लिए दुआ माँग लो
में ठीक ही नहीं होता
शायद तुम ज़्यादा पसंद हो उसे
या शायद मुझे वो ज़बान नहीं आती -
खामोशी की, आँसुओं की, शिद्दत की
या शायद मेरा इलाज ही मुश्किल है
शायद उसको हाथों में भी नहीं
शायद मेरी दवा तुम हो

Friday, September 8, 2017

अकेले शेर - 6

उड़ते-उड़ते बादल पे सवार हो गए
पानी की सतह थी बौछार हो गए

उसने गोया भरी महफ़िल में हमें
ऐसे देखा के जैसे पार हो गए

Thursday, September 7, 2017

ग़ज़ल - 25

ये जो दर्द की तुग़्यानी है
यानी मेरी ज़िंदगानी है

तेरे फ़ासले का हासिल हूँ
मेरी मंज़िल की कहानी है

तेरी आँखों का आँसू भी
मेरी आँखों का पानी है

इक मिटटी का खिलौना है
इक बच्चे की शैतानी है

मुझको अपना दोस्त बतलाना
तेरे नफ़रत की निशानी है

शमा तो जलती रहती है
परवाने की क़ुर्बानी है

मौत की ज़द में सब रहते हैं
मेरी तो आसानी है

उथला-उथला रहता हूँ
समंदर मेरा सानी है

मैं तेरा दीवाना हूँ
तू अपनी ही दीवानी है

सबके पास देने को नसीहत
जाने क्या परेशानी है

दिल पे चाक लबों पे फ़िक़रे
शायर की निशानी है

संभल गए तो परवरिश है
बहक गए तो जवानी है

हर काम भला है दुनिया में
पर इश्क़ बड़ी नादानी है 

Friday, September 1, 2017

ग़ज़ल - 24

दर्द के मौजों पे खुद को सवार मत करना
ऐ मेरे हमराह तू मुझसे कभी प्यार मत करना

ये राह लग सकती है तुझको फूल-ओ-शबनम सी
पर साथ बिछे काटों पे खुद को फ़िगार मत करना

ऐसा नहीं कि मैं तुम्हे बेशुमार न चाहूँगा
पर मेरी हर इक बात का ऐतबार मत करना

एक मुद्दत का वक़्त हो तो सोच सकते हो
जल्दबाज़ी में हो तो किसी का इंतज़ार मत करना

शर्त नहीं रखी जाती हुस्न के दामन में
बाज़ार में आये हो व्यापार मत करना

वस्ल, बोसा, हिज्र, आँसू, दर्द, तोहमत और क़त्ल
प्यार से जो कुछ मिले इनकार मत करना

तुम्हारे दर्द की लज़्ज़त से भी महरूम हो जाये
किसी को, ऐ सितमगर, इतना भी लाचार मत करना

वो जब पहलू में आते हैं बेज़ार हो जाते हैं
खुशबु लेना, फूल को इख़्तियार मत करना

ना बनाओ आलिम इन दश्त-बाशिंदों को तुम
इन खूबसूरत लोगों को तुम बेकार मत करना 

Wednesday, August 23, 2017

मैं

मैं हर्फ़ भी हूँ मैं शब्द भी हूँ
मैं मुखर भी हूँ निःशब्द भी हूँ

मैं द्वंद भी हूँ मैं ख़ुदी भी हूँ
मैं होश भी हूँ बेख़ुदी भी हूँ

मैं मैं ही नहीं मैं तुम भी हूँ
मैं पास तेरे और गुम भी हूँ

मैं सब कुछ हूँ और कुछ भी नहीं
मैं झूठ भी हूँ मैं सच ही नहीं

मैं कश्ती हूँ मैं नदी भी हूँ
तुम जिस पे सवार वो सदी भी हूँ

ये देह मेरे सब एक नही
मैं देह-ओ-कालातीत भी हूँ

मैं हरा भी हूँ भगवा भी हूँ
ईश्वर भी हूँ अल्लाह भी हूँ

मैं खिला हुआ जो कुमुद की तरह
मैं मर कर गिरता वृक्ष भी हूँ

मैं छंद भी हूँ स्वच्छंद भी हूँ
प्रारंभ भी हूँ मैं बंद भी हूँ

मैं एक चराचर निर्मोही
मैं सर पर चढ़ता दंभ भी हूँ

मैं किन्तु हूँ यानी भी हूँ
मैं भिक्षु हूँ दानी भी हूँ

मैं क्रिया भी हूँ कर्ता भी हूँ
संहरता हूँ धरता भी हूँ

मैं चारों दिशाओं में बजता
मैं अंतर्नाद की ध्वनि भी हूँ

Sunday, August 20, 2017

ग़ज़ल - 23

लाद के आलिम-पैराहन
मुरझा जाता है बचपन

एहसासों पे गुमाँ-पोशी
जब छा जाता है सयानापन

आशाओं की पुर्वाई में
सिमट सा जाता है बचपन

अहद-ए-हिसाब बा-फ़ुज़ूल
उम्र बता देता दर्पण

तितली गिनता था बचपन
रिश्ते गिनता है सयानापन

क़ैद-ए-अना में सयानापन
पतंग उड़ाता था बचपन

जब किसी की याद में रोते हो
तो कहाँ जाता है सयानापन

जिन गलियों को छोड़ आए
अब लौट के जाना पागलपन

इक बच्चे को हसाने में
आ जाता छण को बचपन

दीन-ओ-मोहब्बत का एक उसूल
कर देना ख़ुद को अर्पण 

Saturday, August 5, 2017

ग़ज़लें

याद है तुम्हें
जब भी मैं कोई ग़ज़ल लिखता था
आधा-अधूरा, एक मिसरा भी
तो सबसे पहले तुम्हें सुनाता था
और पूछता था कि कैसा लिखा है

तुम बड़े चाव से सुनती
और कुछ देर चुप रहती
फिर कहती - "किस से सुनना चाहते हो?
एक दोस्त से या एक आलोचक से?"

और मैं कहता - "दोस्त से।"
क्योंकि मुझे पता रहता,
अगर आलोचक कहूँगा तो तुम कहोगी -
"अच्छा लिखा है, पर गहरा नहीं है।
उपमाएं हैं, पर रूपक नहीं हैं।
क़ाफिये हैं, पर ज़ेहनी नहीं है।"
"हाँ तो फिर तुम ही लिख लेती।"
"तो फिर ये नुक्ताचीनी का सुख कैसे मिलता।"
पर मैं जानता था, कि तुम्हें लेखनी की अच्छी समझ है
शेर-ओ-शायरी की सराहना का स्तर बोहोत ऊंचा है
पर फिर भी तुम मेरा ढाढस बंधाती

और जब भी मैं कहीं अटक जाता
वो एक शब्द जो ज़ेहन तक आकर ढल नहीं पाता
तो मैं तुम्हारे पास जाता
और तुम वो एक मुक़म्मल शब्द ढूंढ़ कर ले आती
और मेरी ग़ज़ल पूरी हो जाती

तुम मेरी ग़ज़लकारी के लिए वैसे ही ज़रूरी -
जैसे श्रृंगार के लिए माथे पे टीका,
आंखों के लिए सुरमा और कानों के लिए बाली।

आकर देखो तो कभी तुम,
कितनी ग़ज़लें बदसूरत पड़ी हैं।

Sunday, July 30, 2017

ग़ज़ल - 22

तन्हाई में ये ख़याल आता है
क्या पाने से सुकूँ आता है

क्या होने से गुमाँ बढ़ता है
क्या खोने से मलाल आता है

किताबें पढ़ लीं क्या हुआ हासिल
गैरों के ख़्याल से क्या नाता है

कुछ कर गुज़रेंगे इस दुनिया में
पल भर को ही जुनूँ आता है

सच की निगाहों से दुनिया देखी
शीशे में बूढ़ा बाल आता है

कोई इश्क़ ज़रूरी है जीने को
तूफाँ से नदी में उछाल आता है

तुम जीने की वजह लौटा दो
साँस लेना बहरहाल आता है

सच्ची सूरत, झूंठे आँसू
ये हुनर तुम्हे बा-कमाल आता है

सियासी रोटी सेंकनी हो तो
रक्त का ईंधन इस्तेमाल आता है

ख़्वाब-ए-इशरत की ज़द में
इंसाँ घर क्यूँ पामाल आता है

गो खुद को उलझा के दिलासे देना
के दुनिया में तू बड़ा काम आता है

Friday, July 28, 2017

ग़ज़ल - 21

अपनी-अपनी म्यान से शमशीर उघाड़ दो
मैंने नक़ाब उतार दिया तुम भी उतार दो

क़ातिल पहन के आये हैं हमदर्द का चोला
तुम भी मरहम बनो और ख़ंजर को धार दो

तहय्युर में देखते हैं उनका नाला-ए-मज़ालिम
इस जलवा-ए-अदाकारी के लिए कोई पुरस्कार दो

इस सक़ाफ़त में जीना है तो बेड़ियाँ पहन लो
और पैसों के एवज़ में अपनी ज़िन्दगी उधार दो

जो मैं नहीं मक़सूद-ए-मुहब्बत न सही
उसका तो घर बसा उसे चार कहार दो

सब रिश्ते ताक पे रखकर इश्क़ में हो गए कुर्बां
काम बड़ा किया है इन्हें खुद की मज़ार दो

ये दिल है मेरा कभी सौदा किया करे कोई
बे-क़ीमत जानकार न तुम ऐसे नकार दो

देखा जो हमने मुफ़्लिसी-ए-उल्फ़त का ज़माना
हमने तो यही ठाना के हर शख़्स को प्यार दो 

Sunday, June 4, 2017

शतरंज

याद है तुम्हें, हम दोनों अक्सर शतरंज की बाज़ी खेला करते थे
तुम्हें 'डिफेंसिव' खेलना पसंद था और मुझे 'अटैक'
शायद हमारे व्यक्तित्व की ही ये परछाइयाँ थीं

अक्सर तुम अपने अहम मोहरे बड़ी चालाकी से मेरे सामने खोल देती
और मैं नादान सा उन्हें हासिल कर लेता, उसे तुम्हारी गलती समझ कर
और कुछ ही चालों बाद हार जाता

अपनों को बेवजह कुर्बान करके जीतना मेरी फ़ितरत में नहीं था
पर तुम हँसकर कहती - मोहरें अहम नहीं हैं, बाज़ी है

आकर देखो अब कभी तुम खेल मेरा
सबसे पहले रानी मरवा देता हूँ

Friday, June 2, 2017

घर

याद है तुम्हें, हमने एक घर बनाया था
जिसकी चार दीवारों को अपने हाथों से सजाया था

इक दीवार जिसपे चाहत उकेरी थी
इक दीवार जिसपे गुलदान सजाया था
इक दीवार जिसपे ग़ालिब और कीट्स छपे थे
पर इक दीवार जिसको काला रंगवाया था

जब भी हममें से कोई रूठ जाता
तो बिस्तर का सिरा उस काली दीवार की तरफ कर देता

अक्सर यूँ होता कि मैं सिरा चाहत की तरफ घुमाता
अक्सर तुम थक जाती उसे सियाह दीवार की तरफ करते

आकर देखो तो कभी तुम
चारों दीवारें काली रंगवा दी हैं 

Tuesday, May 30, 2017

ग़ज़ल - 20

जाने किस गुमान में बैठा है
इश्क़ अपने अंजाम पे बैठा है

उसकी आँखों में वफ़ा झोंककर
हुस्न बेईमान सा बैठा है

लैला की गली की ख़ाक छानकर
मजनू हलकान सा बैठा है

मेरी बर्बादी बनकर वो मुझमें
मेरी पहचान सा बैठा है

वो खुद ही अपनी हार मानकर
मुझपर एहसान सा बैठा है

ग़म-ए-फ़िराक़ का तोह्फ़ा देकर
मुझपर दान सा बैठा है

अपनी साँस से झगड़ा कर कर
वो मेरी जान सा बैठा है

वो मेरी इस दुनिया का ही नहीं
मेरे दो जहान सा बैठा है

अब बरसों बाद वो मेरे रू-ब-रू
बस जान-पहचान सा बैठा है

सीनों में शोला भड़काकर
वाइज़ नादान सा बैठा है

वो फ़तवा जारी कर के गोया
दौर-ए-फ़रमान सा बैठा है

प्यादों को आगे कर कर
राजा आराम से बैठा है

अधूरी किताबें पढ़ने वाला
मौत के सामान सा बैठा है

बस्तियों में आग लगाकर
शहर श्मशान सा बैठा है

इक औरत पर हाथ उठाकर
आदमी बलवान सा बैठा है

कमाल-ए-ज़ब्त ये है वतन का
फ़ितना-गर मेहमान सा बैठा है

चैन से सो जाओ के सरहद पर
सिपाही दरबान सा बैठा है 

Friday, May 26, 2017

समय

ये ज़िन्दगी क्या है
ये जो याद है क्या वो ज़िन्दगी है
या जो खो गया है और जो पाने वाला है
उसके बीच में है

पर मध्य किधर है
समय की मूलभूत इकाई क्या है
उसके तो निरंतर टुकड़े हो सकते हैं

तो आज किधर है
अभी है! पर अभी तो बीत गया
अभी-अभी
फिर से
कैसे पकड़ेंगे इसे

जो कल था उसका अस्तित्व ही नहीं
सिर्फ प्रतिफल है
जो होने वाला है वो घटा ही नहीं
वो ओझल है

समय के खेल में क्या पा रहे हैं?
क्या समय माया है?
क्योंकि इसका एहसास सापेक्ष्य है, रेलेटिव है
प्रकाश की गति पे समय बदलने लगता है
तो क्या समय की इकाई भी स्थायी नहीं है ?

तो फिर समय क्या है?
अगर ये ज़िन्दगी का चौथा आयाम है
तो फिर ज़िन्दगी क्या है?

Tuesday, May 16, 2017

ग़ज़ल - 19

ये हुक्म है मेरा, कोई अर्ज़ी नही
तू जुदा हो मुझसे ये मेरी मर्ज़ी नही

तू चुप है तो ये आलम है दिल का
के बिजली गिरी है मगर गरजी नही

तुझे रोक लूँ के इश्क़-ए-बे-कराँ है तुझसे
बात मतलब की तेरे है मेरी ख़ुदगर्ज़ी नही

बादशाहत और फ़क़ीरी में तेरे होने का अंतर
और चाक गिरेबाँ सी सकूँ मैं कोई दर्ज़ी नही

Tuesday, May 9, 2017

ग़ज़ल - 18

ये क्या है जो सवार है सर पर
किसी दिलकशी का ख़ुमार है सर पर
दो रोज़ जो हयात लायी है तेरे दर पर
तो मर के जाना है इस सदी को जी कर
उसका चेहरा जो मयस्सर हो आखों के भीतर
तो इबादत में पलकें झुक न जायें क्यूँकर
चलो हिजरत कर लो के घड़ी आयी है बर्बर
सितमगर ने कहा है अब वो नहीं उस जगह पर

त्रिवेणी - 2

इक ख़त लिखा खुद को मैने
कुछ सवाल पूछे, रिटॉरिकल
जवाब आया के ग़ालिब पढ़ते हो, दूसरा ख़त किधर है?

त्रिवेणी - 1

तुम हमपर ऐसे छपे
जैसे मेज़ पर चाय के धब्बे
रोज़ पोछता हूँ फिर प्याला रख देता हूँ

हिंदी-उर्दू

1.
साजन ने कहा ये सजनी से
तू मुझको फ़ूल सी लगती है
कहना तो चाहा उर्दू का पर बोल दिया अंग्रेज़ी का।

2.
इक रक्षक और इक दहशतगर्द, दोनो ही माओं के बेटे हैं
एक माँ ने बेटा जाया है, इक माँ का बेटा ज़ाया है

अकेले शेर - 5

बेफ़िक्री, बेनियाज़ी, किस्सा-ए-अहद-ए-गुज़िश्ता है
अब तो घरों से बस होली-दिवाली का रिश्ता है 

Friday, April 7, 2017

ग़ज़ल - 17

चेहरे से बिछड़ती लालियाँ
नब्ज़ों की सूखती डालियाँ

यूँ मर के ज़िंदा रहते हैं
जैसे सुनता रहे कोई गालियाँ

तमन्ना की हवस है रग-ए-जाँ में
बस दिखती रहें तेरी बालियाँ

मेरे माझी को किस ओर जाना है
मेरे माझी पे निगाह-ए-सवालियाँ

रस्म-ओ-रिवाज़ के जिस्म के बाहर
इंसाँ को मिलती है बहालियाँ

ग़ज़ल का कहना क्या है
बदहवासी, और उदासी, तालियाँ  

Tuesday, March 21, 2017

ग़ज़ल - 16

गोशे-गोशे में तेरे ये आज किसका फ़साना है
तू पहलु में मेरे है और बातों में ज़माना है

ये आँखें जो तेरी मिल नहीं रहीं मेरी आँखों से
मेरी नज़रों में तू है तेरी नज़रों में अफ़्साना है

आज तू एक ग़ज़ल जो पढ़ी जा चुकी है
आज तू एक शम्अ' जिसमें जल चुका परवाना है

ये बस्ती जल रही है आज दिल की और मैं चुप हूँ
ये चिंगारी किसी अपने के हाथों का लगाना है

वो दोनों मुस्कुराकर रु-ब-रु होते हैं उफ़ुक़ पर
चाँद और सूरज में बस तकल्लुफ़ी याराना है

के इंसाँ कुछ नहीं अपने ही कल का एक पुलिंदा है
के जीना बस तजुर्बों का मुकम्मल शायराना है

Thursday, March 16, 2017

ग़ज़ल - 15

ऐ रफ़ू-ए-दिल, हरकत तो दे
आँसू ही बहा, नफ़रत तो दे

बुत-परस्ती में खुद पत्थर बन
अपनी इबादत को मक़सद तो दे

झाड़ खुद को अना की गर्द से
दिल में निगहबानों को शिरकत तो दे

वो जिनके दम पे तू जिंदा है यहाँ
एहसान न मान, पर इज़्ज़त तो दे

जिसके जवाब के इंतज़ार में बैठा है
कमबख़्त उसके नाम एक ख़त तो दे

कितनी आसाँ हो गयी है दुनिया जानाँ
जीने की कोई जद्दोजहद तो दे

अपनी मसर्रत बिछा दूँ तेरे दामन पर
बद-बख़्त मुझे थोड़ी सी मोहब्बत तो दे

जुर्म-ए-मोहब्बत की पेशी में तूने
अपनी कहानी सुनाई, अब हक़ीक़त तो दे

ऐ संग-ए-दिल तेरी दुनिया में
कैसे जीना है मश्वरत तो दे

बोहोत बे-स्वाद हैं पकवान यहाँ माँ
अपने हाथों की रोटी की लज़्ज़त तो दे 

Wednesday, February 15, 2017

ग़ज़ल - 14

हमने ये कभी जाना ही नहीं
जीना फ़क़त मर जाना ही नहीं

के हंसा उड़ भी सकता है फ़लक में
फ़क़त दरिया उसका ठिकाना नहीं

वो खुशबू जिस्म की रूह से आती थी
रूह को पहचाना ही नहीं

क्या सबब दर पे दस्तक देने से
जब उसके घर जाना ही नहीं

दोनों हाथों से लुटा दो आरज़ू
मोहब्बत में फ़क़त पाना ही नहीं

अब हम तुम्हे याद क्यों नहीं करते
इसका तो कोई बहाना ही नहीं

मैं बा-ख़फ़ा हूँ, तुम बे-वफ़ा हो
तुमने जाना ही नहीं, मैंने माना ही नहीं

बे-गिला हो चुकी हो तुम मुझसे
जो रूठता ही नहीं, उसे मनाना ही नहीं

बोहोत इख़्तिलाफ़ है हममें-तुममें
तुम शमा हो, मैं परवाना ही नहीं

एक ही दामन थामे बैठे रहे
हर शख़्स ऐसा दीवाना ही नहीं

दिल-मोहल्ले में तुम रहती हो
मेरा तो आना-जाना ही नहीं

इक ख़त का जवाब इक हर्फ़ में आया
ईमानदारी का तो ज़माना ही नहीं

बुलंदियों पर अपना भी आशियाँ होता
वगरना हमने कभी ठाना ही नहीं 

Thursday, January 12, 2017

ग़ज़ल - 13

ये कैसा हाल बना रखा है
"हमने तेरा शोक मना रखा है"

ये घटाओं में कैसी ख़ामोशी है
"मेरे ग़म ने शोर मचा रखा है"

ये नदियों में ऊफ़ान सा क्यूँ है
"अश्कों ने सैलाब उठा रखा है"

ये फ़िज़ा में कैसी तन्हाई है
"हमने रिश्तों को निभा रखा है"

ये पंछी क्यों रो रहे हैं
"हमने हाल-ए-दिल सुना रखा है"

ये कलियों की इस्मत क्यूँ उजड़ी है
"भँवरों ने कोहराम मचा रखा है"

ज़िन्दगी कैसे गुज़र होगी अब
मौत का सामान तो जा रखा है

अब किसी ग़म की परवाह नहीं
फ़ुर्क़त-ए-ग़म को जो पा रखा है

फैसला तुमको भूल जाने का
हयात-ए-मक़्सद बना रखा है