Friday, September 15, 2017

बाज़ी

याद है तुम्हें
हम दोनों कितने प्रतिस्पर्धी हुआ करते थे
कोई भी क्षेत्र हो, या कोई खेल हो
स्क्रैबल, पत्ते, कैरम, शतरंज...
तुम्हारे शब्दों की पकड़ तुम्हे स्क्रैबल में काम आती
मेरे हाथों की सफ़ाई पत्तों में
कैरम का शुरू होना मतलब तंज़ और छींटाकशी का दौर
शतरंज में चालें वापस लेने की ज़िद
जीतने की सरगर्मी हम दोनों में रहती

जाने कब ये प्रतिस्पर्धा खेलों से निकल कर हमारी ज़िंदगी में आ गयी
जो बातें हमें एक दूसरे पर गर्व महसूस कराती थीं, अब वो खटकने लग गयीं
एक दूसरे की उप्लब्धियाँ कब अहम को चोट पहुँचाने लग गयीं, पता ही नहीं चला

अब तुम नहीं हो
तो खेल में वो मज़ा नहीं है
वो जुनून, वो मज़ाक, वो ज़ीस्त नहीं है
हाँ रिश्ता अब भी है तुमसे
किसी का साथ न होना उस रिश्ते की अपूर्णता तो नहीं
एक तत्व का रिश्ता अब भी है तुमसे, एक सूक्ष्म सतह पर

अब भी कई बार तुम्हारे साथ कोई बाज़ी खेलता हूँ, अकेले ही
तुम्हारी सब चालें तो पता ही हैं मुझे...
तुमसे अच्छा खेलता हूँ तुम्हारी बाज़ी

आकर देखो तो कभी तुम
कितना हारा हुआ हूँ मैं

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