Saturday, September 23, 2017

ग़ज़ल - 27

ज़बाँ पे रखा हुआ अज़ाब देख लूँ
सोचता हूँ मैं तेरा जवाब देख लूँ

काट डालो मुझको तुम हज़ार टुकड़ों में
चाहता हूँ आज तेरा इंक़लाब देख लूँ

मेरे अंदर का तूफान थम गया है
आ तेरे अंदर का गिर्दाब देख लूँ

दूर से करना मुझसे तिजारती बातें
गिरफ़्त में आ जाऊँगा गर बे-हिजाब देख लूँ

होश जानती है तू नाफ़े का सौदा नहीं
नींद फिर भी चाहेगी तेरा ख़्वाब देख लूँ

रातों में निकलो पर नक़ाबों में ढककर
भेड़िया चाहता है बस माहताब देख लूँ

क्यूँ चर्चा है क्या बात बेख़ुदी में
ला मैं थोड़ी सी शराब देख लूँ

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