Friday, April 7, 2017

ग़ज़ल - 17

चेहरे से बिछड़ती लालियाँ
नब्ज़ों की सूखती डालियाँ

यूँ मर के ज़िंदा रहते हैं
जैसे सुनता रहे कोई गालियाँ

तमन्ना की हवस है रग-ए-जाँ में
बस दिखती रहें तेरी बालियाँ

मेरे माझी को किस ओर जाना है
मेरे माझी पे निगाह-ए-सवालियाँ

रस्म-ओ-रिवाज़ के जिस्म के बाहर
इंसाँ को मिलती है बहालियाँ

ग़ज़ल का कहना क्या है
बदहवासी, और उदासी, तालियाँ  

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