Friday, July 28, 2017

ग़ज़ल - 21

अपनी-अपनी म्यान से शमशीर उघाड़ दो
मैंने नक़ाब उतार दिया तुम भी उतार दो

क़ातिल पहन के आये हैं हमदर्द का चोला
तुम भी मरहम बनो और ख़ंजर को धार दो

तहय्युर में देखते हैं उनका नाला-ए-मज़ालिम
इस जलवा-ए-अदाकारी के लिए कोई पुरस्कार दो

इस सक़ाफ़त में जीना है तो बेड़ियाँ पहन लो
और पैसों के एवज़ में अपनी ज़िन्दगी उधार दो

जो मैं नहीं मक़सूद-ए-मुहब्बत न सही
उसका तो घर बसा उसे चार कहार दो

सब रिश्ते ताक पे रखकर इश्क़ में हो गए कुर्बां
काम बड़ा किया है इन्हें खुद की मज़ार दो

ये दिल है मेरा कभी सौदा किया करे कोई
बे-क़ीमत जानकार न तुम ऐसे नकार दो

देखा जो हमने मुफ़्लिसी-ए-उल्फ़त का ज़माना
हमने तो यही ठाना के हर शख़्स को प्यार दो 

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