Friday, October 13, 2017

ग़ज़ल - 30

लम्हा लम्हा कट रही है
ज़िन्दगी जैसे बट रही है

मेरे ख़्वाब तेरे साये से लिपटे
मेरी हद तेरी चौखट रही है

तू मेरी बाहों में भी
किसी और से लिपट रही है

दफ़अतन तेरे क़रीब आता हूँ
तू मेरे सामने से हट रही है

आहिस्ता-आहिस्ता ख़्वाब दूर हो रहा है
तू मेरे अंदर भी सिमट रही है

तेरा अक्स दरिया-ए-सराब था
धुंध जैसे छट रही है

तसव्वुर में तेरा शमीम-ए-बदन
पलक आंखों से सट रही है

मोहब्बत का तेरे मक़बरा है
ज़िन्दगी जैसे मरघट रही है

रात बड़ी बेचैन गुज़री क्या
चादरों पे सिलवट रही है

आइना लेकर खड़ी रहती है
ज़िंदगी बड़ी मुँहफट रही है

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