Saturday, August 5, 2017

ग़ज़लें

याद है तुम्हें
जब भी मैं कोई ग़ज़ल लिखता था
आधा-अधूरा, एक मिसरा भी
तो सबसे पहले तुम्हें सुनाता था
और पूछता था कि कैसा लिखा है

तुम बड़े चाव से सुनती
और कुछ देर चुप रहती
फिर कहती - "किस से सुनना चाहते हो?
एक दोस्त से या एक आलोचक से?"

और मैं कहता - "दोस्त से।"
क्योंकि मुझे पता रहता,
अगर आलोचक कहूँगा तो तुम कहोगी -
"अच्छा लिखा है, पर गहरा नहीं है।
उपमाएं हैं, पर रूपक नहीं हैं।
क़ाफिये हैं, पर ज़ेहनी नहीं है।"
"हाँ तो फिर तुम ही लिख लेती।"
"तो फिर ये नुक्ताचीनी का सुख कैसे मिलता।"
पर मैं जानता था, कि तुम्हें लेखनी की अच्छी समझ है
शेर-ओ-शायरी की सराहना का स्तर बोहोत ऊंचा है
पर फिर भी तुम मेरा ढाढस बंधाती

और जब भी मैं कहीं अटक जाता
वो एक शब्द जो ज़ेहन तक आकर ढल नहीं पाता
तो मैं तुम्हारे पास जाता
और तुम वो एक मुक़म्मल शब्द ढूंढ़ कर ले आती
और मेरी ग़ज़ल पूरी हो जाती

तुम मेरी ग़ज़लकारी के लिए वैसे ही ज़रूरी -
जैसे श्रृंगार के लिए माथे पे टीका,
आंखों के लिए सुरमा और कानों के लिए बाली।

आकर देखो तो कभी तुम,
कितनी ग़ज़लें बदसूरत पड़ी हैं।

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