Monday, December 4, 2017

ग़ज़ल - 43

दिल में जो इक रंज है उसको कभी कहा नहीं
हाँ मगर तुम क्या समझोगे तुमने कभी सहा नहीं

मैं के जो इक जिस्म हूँ मुझको बदलते रहते हो
तुम कोई रूह हो जिसकी कोई इंतिहा नहीं

मैं तुम्हारा नसीब नहीं जो मुझको बिगाड़ सकोगे तुम
मैं तो बस एक ख़्याल हूँ जो टिक कर कभी रहा नहीं

तेरे सामने से हट जाऊँगा गर ये गुमाँ हो जाएगा
मैं जिधर देख रहा हूँ तुम दर-असल वहाँ नहीं

चीख़ कर पुकारती है हर फ़ाक़ा-परस्त की नज़र
दौलत का इस्तेमाल कर दौलत में नहा नहीं

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