Tuesday, May 30, 2017

ग़ज़ल - 20

जाने किस गुमान में बैठा है
इश्क़ अपने अंजाम पे बैठा है

उसकी आँखों में वफ़ा झोंककर
हुस्न बेईमान सा बैठा है

लैला की गली की ख़ाक छानकर
मजनू हलकान सा बैठा है

मेरी बर्बादी बनकर वो मुझमें
मेरी पहचान सा बैठा है

वो खुद ही अपनी हार मानकर
मुझपर एहसान सा बैठा है

ग़म-ए-फ़िराक़ का तोह्फ़ा देकर
मुझपर दान सा बैठा है

अपनी साँस से झगड़ा कर कर
वो मेरी जान सा बैठा है

वो मेरी इस दुनिया का ही नहीं
मेरे दो जहान सा बैठा है

अब बरसों बाद वो मेरे रू-ब-रू
बस जान-पहचान सा बैठा है

सीनों में शोला भड़काकर
वाइज़ नादान सा बैठा है

वो फ़तवा जारी कर के गोया
दौर-ए-फ़रमान सा बैठा है

प्यादों को आगे कर कर
राजा आराम से बैठा है

अधूरी किताबें पढ़ने वाला
मौत के सामान सा बैठा है

बस्तियों में आग लगाकर
शहर श्मशान सा बैठा है

इक औरत पर हाथ उठाकर
आदमी बलवान सा बैठा है

कमाल-ए-ज़ब्त ये है वतन का
फ़ितना-गर मेहमान सा बैठा है

चैन से सो जाओ के सरहद पर
सिपाही दरबान सा बैठा है 

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