Wednesday, November 15, 2017

ग़ज़ल - 39

ये जो रात होती है काली क्यूँ होती है
मेरे ज़ेहन की हर बात बेख़याली क्यूँ होती है

धरती के हिस्से ने मुँह फेरा है सूरज से
पर मेरे आफ़ताब की जगह खाली क्यूँ होती है

मेरी हर चीख़ गिला बन जाती है
तेरी हर आह रुदाली क्यूँ होती है

मेरे इश्क़ में शाम ग़ज़ल होती है
तेरे इश्क़ में रात क़व्वाली क्यूँ होती है

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