Saturday, November 25, 2017

ग़ज़ल - 42

हर तिजारत में नफ़ा नहीं होता
अहल-ए-दिल अहल-ए-वफ़ा नहीं होता

जितना सादा पहली बार होता है
इश्क़ वैसा हर दफ़ा नहीं होता

बोहोत चाक हैं इसपे खूँ-ए-कलम से
इतना कोरा तो दिल का सफ़्हा नहीं होता

अच्छा तुम्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता?
चलो मैं तुमसे ख़फ़ा नहीं होता

तेरे तग़ाफ़ुल पे मोमिन ने कहा होगा
"सनम आखिर ख़ुदा नहीं होता"

Thursday, November 23, 2017

ग़ज़ल - 41

कुछ इस तरह अपने वजूद का बटवारा होगा
ज़मीन मेरी होगी समंदर तुम्हारा होगा

मैं अपने बाम से लेता रहूँगा ख़ुशबू तुम्हारी
नज़रों की हद तक मुझे तेरा नज़ारा होगा

तू दम्भ न भर मुझसे कुशादा होने का
तेरी गहराइयों में भी वर्चस्व हमारा होगा

मैं दिन की धूप में लूँगा तेरी सबा का लुत्फ़
तुझे रातों में मेरी सर्द आहों का सहारा होगा

तुम पढ़ लेना मेरे भेजे हुए ख़त सारे
साहिल पे उंगलियों से लिखा पैगाम हमारा होगा

तुम्हारी बड़बड़ाहट सुनता रहूँगा लहरों से
कहीं इस कोलाहल में तुमने मुझे पुकारा होगा

मैं लेट जाऊँगा किनारे पर लहरों की ओर सर करके
तुमने शायद पहले भी मेरी ज़ुल्फ़ों को सँवारा होगा

तुम आना कभी मेरे घर ज्वार-भाटों की नौका पर
माहताब मैंने उस दिन अपने आँगन में उतारा होगा

तुम्हारी कलरव से बना लूँगा मैं धुन कोई
तरन्नुम पे ग़ज़ल का लुत्फ़ बड़ा प्यारा होगा

जब-जब तुम्हारे तिश्ना-लब मुझको कभी पुकारेंगे
मैंने ख़ुद को समंदर में बिना कश्ती उतारा होगा

मुंतज़िर क़यामत का हूँ जब एक हो जाएँगे हम
तुझमे समा जाऊँगा बस जान का ख़सारा होगा

Saturday, November 18, 2017

ग़ज़ल - 40

इमकानों के बीज बोने दो
जो हो रहा है होने दो

लब क़रीब आ रहे आने दो
नये ज़ख्म लहू में पिरोने दो

मेरा पैमाना क्यों खींचा
जाम तो खाली होने दो

जज़्बा-ए-दिल अश्कों से सींचो
हम बंजर-दिल हमें रोने दो

जिनकी रात गुज़री वो उठ जाएँ
अभी दिन हुआ है मुझे सोने दो

Wednesday, November 15, 2017

ग़ज़ल - 39

ये जो रात होती है काली क्यूँ होती है
मेरे ज़ेहन की हर बात बेख़याली क्यूँ होती है

धरती के हिस्से ने मुँह फेरा है सूरज से
पर मेरे आफ़ताब की जगह खाली क्यूँ होती है

मेरी हर चीख़ गिला बन जाती है
तेरी हर आह रुदाली क्यूँ होती है

मेरे इश्क़ में शाम ग़ज़ल होती है
तेरे इश्क़ में रात क़व्वाली क्यूँ होती है

Tuesday, November 14, 2017

ग़ज़ल - 38

एक शख़्स है जो दिल की हर बात समझता है
हाँ मगर चुप रहता है जज़्बात समझता है

जो पूछता हूँ उससे क्या हाल है मेरा
मुस्कुरा देता है मेरी ज़ात समझता है

खुशी-खुशी सुनता है मेरे बहके-बहके शेर
डर जाता है जब मेरे अल्फ़ाज़ समझता है

दाद देते हैं दोनो बा-कमाल ख़राबी की
मैं दिल को वो मुझको बर्बाद समझता है

Wednesday, November 8, 2017

ग़ज़ल - 37

सारी ज़िन्दगी किसी के नाम करके
कोई जा रहा है ख़ुद को ग़ुलाम करके

बे-अदब सा आया था दुनिया में
जा रहा है सबको सलाम करके

वो उसकी कहानी कह रहा है
अपने ज़ख्मों को सर-ए-आम करके

तेरे ख़्याल क्यूँ कहीं नहीं जाते
मैं तो घर आता हूँ अपना काम करके

Friday, November 3, 2017

ग़ज़ल - 36

सारी हदें पार कर गया हूँ
तेरे जाने के बाद सुधर गया हूँ

वो जो कर रहे हैं मेरे हक़ में बातें
उनकी हर बात से मुकर गया हूँ

तेरी अंजुमन में बैठा हूँ
चाँदनी में निखर गया हूँ

जुगनुओं से लड़ता रहा हूँ
तीरगी से भर गया हूँ

शब गुज़ार ली अब चलता हूँ
जितना खाली था उतना भर गया हूँ

फिर तुझपे भरोसा कर लिया
तो क्या नया कर गया हूँ

डूबते वक़्त तेरी कश्ती देखी
चलते पानी में ठहर गया हूँ

क्या वजह है अहद-ए-सफ़र में
मुझे तुम मिले हो जिधर गया हूँ

देखने वाले देखते रहें मुझको
दुनिया-ए-ज़ात से उबर गया हूँ

आखिरी ग़ज़ल लिख रहा हूँ
ग़ज़लकारी से तर गया हूँ

अकेले शेर - 7


ज़िन्दगी कुछ नहीं जुज़ दरिया-ए-पानी है
मौज है उठती है चली जानी है

हस्ती जिस्म है, यादें रूह है
जिस्म गुज़र जाते हैं रूह लाफ़ानी है

Thursday, November 2, 2017

ग़ज़ल - 35

मेरी फ़िक्र करने की तुम्हें ज़रूरत नहीं है
जुदा होकर जीने की कोई सूरत नहीं है

जो गुज़री है शब वो हम दोनो की थी
और उस शब से ज़्यादा कुछ खूबसूरत नहीं है

देख ली मैंनें तेरी वादा-निबाही
और उससे ज़्यादा कुछ बदसूरत नहीं है

मौत हर दिन क़रीब आती जाती है
इंसान है तू पत्थर की मूरत नहीं है

हिज्र ख़ुद-कुश है पर मैं नहीं हूँ
इश्क़ जावेदानी है पर तू नहीं है