Thursday, September 28, 2017

ग़ज़ल - 28

सीपियों में बंद कोई सितारा करके
ले आओ तुम समंदर से किनारा करके

आसमाँ को रश्क़ होगा हमसे आज
पास मेरे तुम रहो शरारा करके

मुझको अपने आगोश में लौट जाने दो
ले आऊंगा ख़ुद को मैं तुम्हारा करके

बहकने की इजाज़त चाहता हूँ तुमसे
और फिर जो तुम कहो गवारा करके

कायनात सो चुकी मैं भी सो जाऊंगा
कुछ देर तुम्हारे रुख़ का नज़ारा करके

महफ़िलों में जी नहीं लगता मेरा
तुम मुझे बुला लेना इशारा करके

जाते वक्त यक़ीनन दोनो रो पड़ेंगे
आँसुओं से आँसुओं को खारा करके

फिर तुम्हारी आँख से टपकूँगा मैं
तुम्हारी गोद में इक ख़्वाब प्यारा करके

फिर किसी ज़िन्दगी में हम मिलेंगे
अपने इसी रिश्ते को बहारा करके

Monday, September 25, 2017

कहाँ से हो

कभी कभी सोच में पड़ जाता हूँ
जब कोई पूछता है, कहाँ से हो?

जवानी लख़नऊ की है
बचपन इलाहाबाद का
और जड़ें बिहार की

जड़ें तो अवचेतन में हैं
जवानी जल्दबाज़ी और जुनूनीयत में
बचपन बड़ा सुहाना था।

Saturday, September 23, 2017

ग़ज़ल - 27

ज़बाँ पे रखा हुआ अज़ाब देख लूँ
सोचता हूँ मैं तेरा जवाब देख लूँ

काट डालो मुझको तुम हज़ार टुकड़ों में
चाहता हूँ आज तेरा इंक़लाब देख लूँ

मेरे अंदर का तूफान थम गया है
आ तेरे अंदर का गिर्दाब देख लूँ

दूर से करना मुझसे तिजारती बातें
गिरफ़्त में आ जाऊँगा गर बे-हिजाब देख लूँ

होश जानती है तू नाफ़े का सौदा नहीं
नींद फिर भी चाहेगी तेरा ख़्वाब देख लूँ

रातों में निकलो पर नक़ाबों में ढककर
भेड़िया चाहता है बस माहताब देख लूँ

क्यूँ चर्चा है क्या बात बेख़ुदी में
ला मैं थोड़ी सी शराब देख लूँ

Thursday, September 21, 2017

ग़ज़ल - 26

इक बोझ वो हमसे उठाया न गया
तेरे झूठ का सर से साया न गया

इस तरह तोड़ के सब रिश्ते मैं
ऐसा गया के फिर आया न गया

सारी यादों की पोटली बाँध ली है
सरमाया तुझपे कोई ज़ाया न गया

तुझको रक़ीब की बाहों में जाते देखा
यूँ लब सिले थे के बताया न गया

तुझपर हाथ उठाना मेरी इंतेहा थी
इतना कम-ज़र्फ़ था के मर जाया न गया

Saturday, September 16, 2017

मुम्बई

वो शहर याद आता है

अनवरत चलती रेलों में
मौजों की थपेड़ों में
एक शहर है जो कभी सोता नहीं है
जागते सपनों को कभी खोता नहीं है

ये शहर बोहोत ही अमीर है
यहाँ भेद-भाव की न कोई लकीर है
ये सबको समाविष्ट करती है
हक़ बराबर का सबको देती है

इस शहर के बाशिंदे सब
चैन से सोते हैं
सपनों को हक़ीक़त करने में
पाँव जो थके होते हैं
मुफ़्लिसी हो या लाचारी
यहाँ ख़्वाब बड़े ही होते हैं

यहाँ ज़िन्दगी चलचित्र और नाटक संजीदा हैं
यहाँ इंसान सुलझे पर अरमान पेचीदा हैं

ये शहर नहीं एक जज़्बात है
हर रंग के यहाँ एहसासात हैं

वो एक वैसा शहर याद आता है

Friday, September 15, 2017

बाज़ी

याद है तुम्हें
हम दोनों कितने प्रतिस्पर्धी हुआ करते थे
कोई भी क्षेत्र हो, या कोई खेल हो
स्क्रैबल, पत्ते, कैरम, शतरंज...
तुम्हारे शब्दों की पकड़ तुम्हे स्क्रैबल में काम आती
मेरे हाथों की सफ़ाई पत्तों में
कैरम का शुरू होना मतलब तंज़ और छींटाकशी का दौर
शतरंज में चालें वापस लेने की ज़िद
जीतने की सरगर्मी हम दोनों में रहती

जाने कब ये प्रतिस्पर्धा खेलों से निकल कर हमारी ज़िंदगी में आ गयी
जो बातें हमें एक दूसरे पर गर्व महसूस कराती थीं, अब वो खटकने लग गयीं
एक दूसरे की उप्लब्धियाँ कब अहम को चोट पहुँचाने लग गयीं, पता ही नहीं चला

अब तुम नहीं हो
तो खेल में वो मज़ा नहीं है
वो जुनून, वो मज़ाक, वो ज़ीस्त नहीं है
हाँ रिश्ता अब भी है तुमसे
किसी का साथ न होना उस रिश्ते की अपूर्णता तो नहीं
एक तत्व का रिश्ता अब भी है तुमसे, एक सूक्ष्म सतह पर

अब भी कई बार तुम्हारे साथ कोई बाज़ी खेलता हूँ, अकेले ही
तुम्हारी सब चालें तो पता ही हैं मुझे...
तुमसे अच्छा खेलता हूँ तुम्हारी बाज़ी

आकर देखो तो कभी तुम
कितना हारा हुआ हूँ मैं

Thursday, September 14, 2017

दुआ

याद है तुम्हें
जब भी तुम बीमार पड़ती थी
तो मैं कितना घबरा जाता था
भाग कर दवा लाना, खाना लाना

पर जब मैं बीमार पड़ता था
तुम बिल्कुल शाँत रहती थी
कहती थी - सब ठीक हो जाएगा
और दूसरे कमरे में जाकर
नम आंखों से दुआ करती थी
के मैं जल्दी ठीक हो जाऊँ

अब तुम नहीं हो
तो क्या इतना कर सकती हो -
मेरे लिए दुआ माँग लो
में ठीक ही नहीं होता
शायद तुम ज़्यादा पसंद हो उसे
या शायद मुझे वो ज़बान नहीं आती -
खामोशी की, आँसुओं की, शिद्दत की
या शायद मेरा इलाज ही मुश्किल है
शायद उसको हाथों में भी नहीं
शायद मेरी दवा तुम हो

Friday, September 8, 2017

अकेले शेर - 6

उड़ते-उड़ते बादल पे सवार हो गए
पानी की सतह थी बौछार हो गए

उसने गोया भरी महफ़िल में हमें
ऐसे देखा के जैसे पार हो गए

Thursday, September 7, 2017

ग़ज़ल - 25

ये जो दर्द की तुग़्यानी है
यानी मेरी ज़िंदगानी है

तेरे फ़ासले का हासिल हूँ
मेरी मंज़िल की कहानी है

तेरी आँखों का आँसू भी
मेरी आँखों का पानी है

इक मिटटी का खिलौना है
इक बच्चे की शैतानी है

मुझको अपना दोस्त बतलाना
तेरे नफ़रत की निशानी है

शमा तो जलती रहती है
परवाने की क़ुर्बानी है

मौत की ज़द में सब रहते हैं
मेरी तो आसानी है

उथला-उथला रहता हूँ
समंदर मेरा सानी है

मैं तेरा दीवाना हूँ
तू अपनी ही दीवानी है

सबके पास देने को नसीहत
जाने क्या परेशानी है

दिल पे चाक लबों पे फ़िक़रे
शायर की निशानी है

संभल गए तो परवरिश है
बहक गए तो जवानी है

हर काम भला है दुनिया में
पर इश्क़ बड़ी नादानी है 

Friday, September 1, 2017

ग़ज़ल - 24

दर्द के मौजों पे खुद को सवार मत करना
ऐ मेरे हमराह तू मुझसे कभी प्यार मत करना

ये राह लग सकती है तुझको फूल-ओ-शबनम सी
पर साथ बिछे काटों पे खुद को फ़िगार मत करना

ऐसा नहीं कि मैं तुम्हे बेशुमार न चाहूँगा
पर मेरी हर इक बात का ऐतबार मत करना

एक मुद्दत का वक़्त हो तो सोच सकते हो
जल्दबाज़ी में हो तो किसी का इंतज़ार मत करना

शर्त नहीं रखी जाती हुस्न के दामन में
बाज़ार में आये हो व्यापार मत करना

वस्ल, बोसा, हिज्र, आँसू, दर्द, तोहमत और क़त्ल
प्यार से जो कुछ मिले इनकार मत करना

तुम्हारे दर्द की लज़्ज़त से भी महरूम हो जाये
किसी को, ऐ सितमगर, इतना भी लाचार मत करना

वो जब पहलू में आते हैं बेज़ार हो जाते हैं
खुशबु लेना, फूल को इख़्तियार मत करना

ना बनाओ आलिम इन दश्त-बाशिंदों को तुम
इन खूबसूरत लोगों को तुम बेकार मत करना