Wednesday, January 24, 2018

ग़ज़ल - 53

ये जो चेहरे से तुमने चुनरी ढलती कर दी
बस उसी जगह पे तुमने गलती कर दी

एक सैलाब-ए-हुस्न सीने में उभर आया
और उसने धड़कनें मचलती कर दीं

किसी गुल की तरह छू कर गुज़रा लम्स तुम्हारा
और शिकम में तितलियाँ उछलती कर दीं

बदन के जैसे हो कुंदन दमकता रश्मियों में
के जैसे अक्स में हो चाँदनी पिघलती कर दी

अभी तो और करीब आना था तुमको
तुमने दूर जाने में जल्दी कर दी

Monday, January 22, 2018

ग़ज़ल - 52

अपनी लग़्ज़िशों का ज़िन्दान तुम भी हो
इंसान हम भी हैं इंसान तुम भी हो

नक़ाब-ए-तबस्सुम, लिबास-ए-बहबूद के पीछे
उर्यान हम भी हैं उर्यान तुम भी हो

ये जो जकड़े गए हैं ज़ंजीर-ए-अशराफ़ में वगरना
शैतान हम भी हैं शैतान तुम भी हो

कभी दीवाने थे जो अब इक दूसरे का
इम्तिहान हम भी हैं इम्तिहान तुम भी हो

ता-क़यामत जो दिल में ज़ब्त रहेंगे उन असरारों के
पास-बान हम भी हैं पास-बान तुम भी हो

न जाने क्यूँ समझ आती नहीं तर्ज़-ए-बयानी
हम-ज़बान हम भी हैं हम-ज़बान तुम भी हो

तुम सब भुला चुकी मुझको सब याद है
हैरान हम भी हैं हैरान तुम भी हो

है ख़्वाहिश कि पा लूँ जो पहलू में नहीं है
नादान हम भी हैं नादान तुम भी हो

इतना अहम क्यों सुपुर्द-ए-ख़ाक का
सामान हम भी हैं सामान तुम भी हो

किस चीज़ को अपना कहें जहान-ए-ख़ुदा में
मेहमान हम भी हैं मेहमान तुम भी हो

इंसानी ज़ात से उठकर मसीहा होने का
इम्कान हम भी हैं इम्कान तुम भी हो

अभी तो रवाँ है नफ़स में खुमारी
जवान हम भी हैं जवान तुम भी हो

Thursday, January 18, 2018

ग़ज़ल - 51

ज़ेहनी साँचों में अटकता जा रहा हूँ
सबके दिलों में खटकता जा रहा हूँ

हर सम्त से आ रही है खुशबू
कू-ब-कू भटकता जा रहा हूँ

उछलकर जो जुगनूँ पकड़ने चला था
हवा में लटकता जा रहा हूँ

यादों की कपास चिपकती है दामन पर
मैं दामन झटकता जा रहा हूँ

निशान

याद है तुम्हें
मैं कितना लापरवाह हुआ करता था
किसी भी चीज़ को कहीं से उठाकर कहीं रख देना
और तुम उतनी ही सुलझी हुई
तरतीब से रहने वाली
हर चीज़ को उसकी सही जगह पर सजा कर रखती थी

तुम्हारी एक आदत थी
तुम अक्सर अपनी चीज़ों पे कोई निशान बना दिया करती थी
ताकि तुम उसे आसानी से ढूंढ़ पाओ
वो दूसरों की चीज़ों में मिल न जाए
कोई और उसपर अपना दावा ना कर सके

कभी नाख़ून से कोई हर्फ़ गोद देना
कभी कोई रंग लगाकर छोड़ देना

तुमने कुछ निशान छोड़े हैं मेरी रूह पर भी
पर कभी मुझे ढूंढ़ने नहीं आई
कभी मुझपर दावा नहीं किया

अब वक्त उन निशानों को मिटा रहा है
और मैं डर रहा हूँ
कहीं मैं अपनी पहचान खो न दूँ

आकर देखो तो कभी तुम
रूह लावारिस बैठी है मेरे अंदर
नए निशानों की मुंतज़िर

Friday, January 12, 2018

ग़ज़ल - 50

जब धड़कन के साज़ मिलेंगे
सुरमई सी आवाज़ मिलेंगे

फ़लक सरीखी ग़ज़ल बनेगी
लफ़्ज़ों को परवाज़ मिलेंगे

किसी फ़क़ीर की मस्ती देखो
जीने के अंदाज़ मिलेंगे

अहल-ए-दुनिया की मत सोचो
लोग तो बस नाराज़ मिलेंगे

अपने ज़मीर की बातें सुनना
हम तुमको आवाज़ मिलेंगे

कैसे जान पे बन आती है
इश्क़ में डूबो, राज़ मिलेंगे

मेरी ग़ज़लों में ब-ज़ाहिर
उसके ही अल्फ़ाज़ मिलेंगे

मज़लूमी आँखों में झाँको
इंक़लाबी आग़ाज़ मिलेंगे

चश्म-ए-तअ'स्सुब हटाकर देखो
लोग बोहोत मुमताज़ मिलेंगे

Tuesday, January 9, 2018

समंदर

याद है तुम्हें
हम दोनों अक्सर शाम के वक़्त समंदर के तट पर मिला करते थे
और किनारे के पानी में खड़े होकर, एक दूसरे का हाथ थामे, आँखें मूंद लिया करते थे

हर लहर के साथ पाँव के नीचे की रेत खिसकती रहती
और हमें लगता कि जैसे हम किसी जहाज़ पर हिलोरे खाते शून्य की ओर बढ़ रहे हों
चाँद का गुरुत्व स्वतः ही खींच लिए जा रहा हो

तुम अक्सर डर जाया करती और आँखें खोलने की बात कहती -
"कहीं हम बोहोत अंदर तो नही आ गए? कहीं हम रेत में धस तो नहीं रहे?"
"तुम्हें मुझपर भरोसा नहीं है?"
"बिल्कुल नहीं"
पर फिर भी तुम आँखें नहीं खोलती
उस उन्माद, उस भ्रम को हम दोनों खोना नहीं चाहते थे

लहरों की लयबद्ध ध्वनि हम में एक ऐसा सामंजस्य पैदा कर देती,
जैसे किसी तानपुरे की तान से झंकृत होकर हम उपसमाधि की ओर बढ़ रहे हों

पर तुम्हे मालूम है, मैं आँखें खोला करता था, बीच बीच में
यह देखने के लिए नहीं कि हम कितने पानी में आ चुके हैं
केवल तुम्हें देखने के लिए, शफ़क़ चाँदनी में

फिर किसी रोज़ इक तेज़ झोंके की लहर आयी
और हाथ छूठ गए
रात अमावस की थी
हम किनारे से काफ़ी अंदर आ चुके थे
मैंने बोहोत ढूँढा तुम्हें
न तुम मिली न इससे वापस आने का रास्ता
मैं खोता चला गया

आकार देखो तो कभी तुम
मैं शून्य तक पहुँच चुका हूँ
बोहोत सन्नाटा है यहाँ ।

Thursday, January 4, 2018

ग़ज़ल - 49

बोहोत धीमी है मगर लहकना चाहती है
फ़ित्नागरी आग बनकर दहकना चाहती है

जो अब तक उसूलों के पैरहन में ढकी हुई थी
इक ख़्वाहिश बेबाक बदचलन बहकना चाहती है

सहम-सहम के जो खुलती थी पंखुड़ी हर रोज़
गुलिस्ताँ-ए-फ़ज़ा में रंगीनियत महकना चाहती है

दायरों में सिमट कर जो घूँघट चुप रहते थे
ज़ेहनी-अँधियारों में शोर बन कर गूँजना चाहती है

Tuesday, January 2, 2018

नया साल

वो वर्ष और था, ये साल नया है
गगन में घुलता अरुणिम गुलाल नया है

जो मानव हो तुम तो, जो ठानो वो पा लो
जो गुज़रा वो भूलो, ये सूरत-ए-हाल नया है