Saturday, November 19, 2016

ग़ज़ल - 12

ये दिल किसी की मोहब्बत का तलबगार तो नहीं
नफ़रत ही चाहता है कोई बीमार तो नहीं

कोई डोर न टूटे एक रिश्ता तो कायम रहे
इश्क़ न हो, पर वहशत से इनकार तो नहीं

तुम अहल-ए-दुनिया के क़ासिम ठहरे
हम भी अपनी क़िस्मत से लाचार तो नहीं

ये वफ़ा की बातें कितनी बे-मानी हैं
ये इश्क़ है, कोई सौदा-ओ-क़रार तो नहीं

अब भी उतर आते हैं उनकी आँखों में हम
हिज्र-ए-पर्दा-नशीं कोई दीवार तो नहीं

ये देख के दुनिया में, ख़ुश-शक्ल बोहोत हैं
जी में आता है, ये अदाकार तो नहीं 

Sunday, November 13, 2016

चलो प्रणय की बेला है

चलो प्रणय की बेला है
जीवन निस्स्पन्द अकेला है

बैरागी मन को कीत-कीत
पलकों में भर कर मीत-प्रीत
अधरों पे धर कर गीत-गीत
सब बाधाओं को जीत-जीत

यह गीत यदि जो गाना है
तो राग मृदु बैठाना है
वीणा की तार सजानी है
ढोलक पर थाप बिठाना है

चलो विजय की बेला है
जीवन मृत्युंजय मेला है

यह पाथ बोहोत जो दुर्गम है
चलना इसपर मानव प्रण है
यह भव-सागर प्रलयंकर है
पर जीवन एक परिश्रम है

नर बाधाओं से हारे क्यों
पौरुष अपना ही मारे क्यों
रणभूमि का यह शंकर है
विपदा कदापि एक कंकड़ है

जिसके भीतर यह आग सहज
उसके समक्ष ही विजय-ध्वज

उस पार प्रणय की बेला है
जीवन निस्स्पन्द अकेला है  

Tuesday, October 18, 2016

ग़ज़ल - 11

टूटे-टूटे दिल जुड़ते हैं
दहर में जब हम-तुम मिलते हैं

हम तुमसे क्यूँ हैं वाबस्ता
इश्क़ नहीं पर ग़म मिलते हैं

तुम हमपे क्यूँ इतनी अमादा
फ़लक में ही पंछी उड़ते हैं

बैरी क्यूँ है जहाँ तुम्हारा
काँटो में ही गुल खिलते हैं

ये कैसा एहसास-ए-तसादुम
शायद सदियों से हम मिलते हैं

शहर का शहर है यहाँ मुसाफ़िर
मंज़िल पर तो हम मिलते हैं

कोई किसी से नहीं यहाँ कम
अक्सर ख़ुदी से हम मिलते हैं 

Saturday, October 15, 2016

जाड़े की रात - नज़्म

जाड़े की रात
सब्ज़ पहाड़ों पर
ये दूधिया कोहरा
और सिमटता चाँद, बादलों के पीछे
मानो ठिठुर के अपने कम्बल में घुस रहा हो
और बोझल आँखों से ये कह रहा हो -
जाओ, तुम किसकी तलाश कर रहे हो
इन घनी वादियों में
इस गलन के मौसम में
मैं तुम्हे कुछ नहीं दे सकता
गर्मी भी नहीं, किरणें शीतल हैं मेरी
चमक शिथिल है अभी
कल आना।

पर मैं अडिग, चलता रहा
कहा उससे - एक संगी था
जीवन-पथ पर
मनरंगी था
कहीं बिछड़ गया है
ढूंढ़ रहा हूँ ।
चाँद हँसा
और हँसकर बोला -
ये रीत बहुत पुरानी है
संगी-साथी बेमानी है
कोई हरदम साथ नहीं देता  
ये ज़िद क्यों तूने ठानी है
ये सावन-रुत के साथी तो
पतझड़ तक साथ निभाते हैं
शरद-ऋतु आते-आते
सब बर्फीले हो जाते हैं
छोड़ो अब तुम ये व्यर्थ प्रयास
जो नहीं उसे पाने की कयास
ये देखो शृष्टि मनोरम है
सब राग-द्वेष इसमें सम हैं
ये नदी तुझे बुलाती है
पेड़ों की छाँव लुभाती है
और दूर कहीं तेरे घर में
इक माँ है, आस लगाती है
अब लौट जा इन अपनों में तू ,
अब अगले सावन आना। 

Sunday, August 7, 2016

ग़ज़ल - 10

नूर बरपे गली गली
जब वो महवश चली चली
रखे उसने फूलों पे कदम
दिल की ज़मीन पे गर्द उड़ी
उसके रुख़सार की नरमी जैसे
उगते सूरज पे कली खिली
उसका तबस्सुम, एक तसादुम
उसकी हया पे बर्क़ गिरी
उसकी हसी और उसकी बोली
कान में जैसे कूक पड़ी
अफ़्लाक सी आँखें, चाल मयूरी
शफ़क़ में लिपटी हूर-परी
उसकी कमर है जैसे झेलम
ज़ुल्फ़ों में फिरदौस मिली
मुझपे निगाहें एक इनायत
और है उसकी दरिया-दिली

ग़ज़ल - 9

दोराहे पर लाकर सवाल करती है
ज़िंदगी कैसे कमाल करती है
इक तरफ जमाल-ए-यार और इक तरफ बेबसी
या तो निढाल करती है या मलाल करती है
क्यूँ खुद-ब-खुद नहीं चुनती अपनी राह
ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी पे बहाल करती है
कोई भी राह चुनो आख़िरकर
दुसरे की जुस्तजू खाल करती है
शाम का वक़्त और चाय की प्याली
ज़िंदगी फ़िलहाल अपना ख़याल करती है

Sunday, May 8, 2016

ग़ज़ल - 8

एक और वर्ष बीतने को है
पत्र कोई शाख से टूटने को है

जीवन की निरंतरता से बोझल होकर
ज़ेहन खुद अपनी आबरू लूटने को है

मंज़िल के पास जा रहे या दूर
ये भांडा अब फूटने को है

उसके पहलू से कुछ यूँ उठे हम
जैसे अश्रू नयन से छूटने को है

ज़िन्दगी कुछ यूँ तुनक-मिज़ाजी सी
जैसे प्रेयसी सजन से रूठने को है

भृकुटि-मध्य संध्या की लाली
जैसे सूरज पर्वतों में डूबने को है

एक ही बीज तो बोया था हमने
कोई और उसकी फ़स्ल लूटने को है

अकेले शेर - 4

हमने कभी न उनसे कही आतिश-ए-लब
बस उनके हिलते होंठों में अपना जवाब सुनते रहे

Wednesday, January 27, 2016

ग़ज़ल - 7

तुम कह भी दोगे, हम मान भी लेंगे
ये राज़ एक दिन मेरी जान भी लेंगे

तुम कौन हो इसका इल्म है मुझे
मैं कौन हूँ ये सब जान ही लेंगे

बस एक ही गिला है मुझे तुमसे
हम तुम्हे कभी ईमान से न लेंगे

दुनिया से छुपकर कोई कबतक जिया है
साये हैं कि उसके पहचान ही लेंगे 

Tuesday, January 26, 2016

ग़ज़ल - 6

मुख़ातिब है वो मुझसे पर अनजान बनता है
वो शख़्स मुझको देख कर हैरान बनता है 

वो कहता है एक अरसा हुआ तअल्लुक़ किये हुए 
वो जानता है के दिल कई-रोज़ बेईमान बनता है 

कितनी बेताबी है बादल के सीने में 
मिट्टी की खुशबू से ये पैगाम बनता है

बीती हुई मोहब्बत एक दौर से गुज़रती है 
पहले जलन, फिर गुस्सा, फिर इल्ज़ाम बनता है 

बीते हुए कल की हवस अच्छी नहीं 
अकेलापन अक्सर मौत का सामान बनता है 

अब अजनबी हैं हम-तुम दुनिया के लिए 
जैसे छुपकर कोई इंसान रहता है