Saturday, November 19, 2016

ग़ज़ल - 12

ये दिल किसी की मोहब्बत का तलबगार तो नहीं
नफ़रत ही चाहता है कोई बीमार तो नहीं

कोई डोर न टूटे एक रिश्ता तो कायम रहे
इश्क़ न हो, पर वहशत से इनकार तो नहीं

तुम अहल-ए-दुनिया के क़ासिम ठहरे
हम भी अपनी क़िस्मत से लाचार तो नहीं

ये वफ़ा की बातें कितनी बे-मानी हैं
ये इश्क़ है, कोई सौदा-ओ-क़रार तो नहीं

अब भी उतर आते हैं उनकी आँखों में हम
हिज्र-ए-पर्दा-नशीं कोई दीवार तो नहीं

ये देख के दुनिया में, ख़ुश-शक्ल बोहोत हैं
जी में आता है, ये अदाकार तो नहीं 

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