Sunday, November 13, 2016

चलो प्रणय की बेला है

चलो प्रणय की बेला है
जीवन निस्स्पन्द अकेला है

बैरागी मन को कीत-कीत
पलकों में भर कर मीत-प्रीत
अधरों पे धर कर गीत-गीत
सब बाधाओं को जीत-जीत

यह गीत यदि जो गाना है
तो राग मृदु बैठाना है
वीणा की तार सजानी है
ढोलक पर थाप बिठाना है

चलो विजय की बेला है
जीवन मृत्युंजय मेला है

यह पाथ बोहोत जो दुर्गम है
चलना इसपर मानव प्रण है
यह भव-सागर प्रलयंकर है
पर जीवन एक परिश्रम है

नर बाधाओं से हारे क्यों
पौरुष अपना ही मारे क्यों
रणभूमि का यह शंकर है
विपदा कदापि एक कंकड़ है

जिसके भीतर यह आग सहज
उसके समक्ष ही विजय-ध्वज

उस पार प्रणय की बेला है
जीवन निस्स्पन्द अकेला है  

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