Tuesday, October 18, 2016

ग़ज़ल - 11

टूटे-टूटे दिल जुड़ते हैं
दहर में जब हम-तुम मिलते हैं

हम तुमसे क्यूँ हैं वाबस्ता
इश्क़ नहीं पर ग़म मिलते हैं

तुम हमपे क्यूँ इतनी अमादा
फ़लक में ही पंछी उड़ते हैं

बैरी क्यूँ है जहाँ तुम्हारा
काँटो में ही गुल खिलते हैं

ये कैसा एहसास-ए-तसादुम
शायद सदियों से हम मिलते हैं

शहर का शहर है यहाँ मुसाफ़िर
मंज़िल पर तो हम मिलते हैं

कोई किसी से नहीं यहाँ कम
अक्सर ख़ुदी से हम मिलते हैं 

No comments:

Post a Comment