Saturday, October 15, 2016

जाड़े की रात - नज़्म

जाड़े की रात
सब्ज़ पहाड़ों पर
ये दूधिया कोहरा
और सिमटता चाँद, बादलों के पीछे
मानो ठिठुर के अपने कम्बल में घुस रहा हो
और बोझल आँखों से ये कह रहा हो -
जाओ, तुम किसकी तलाश कर रहे हो
इन घनी वादियों में
इस गलन के मौसम में
मैं तुम्हे कुछ नहीं दे सकता
गर्मी भी नहीं, किरणें शीतल हैं मेरी
चमक शिथिल है अभी
कल आना।

पर मैं अडिग, चलता रहा
कहा उससे - एक संगी था
जीवन-पथ पर
मनरंगी था
कहीं बिछड़ गया है
ढूंढ़ रहा हूँ ।
चाँद हँसा
और हँसकर बोला -
ये रीत बहुत पुरानी है
संगी-साथी बेमानी है
कोई हरदम साथ नहीं देता  
ये ज़िद क्यों तूने ठानी है
ये सावन-रुत के साथी तो
पतझड़ तक साथ निभाते हैं
शरद-ऋतु आते-आते
सब बर्फीले हो जाते हैं
छोड़ो अब तुम ये व्यर्थ प्रयास
जो नहीं उसे पाने की कयास
ये देखो शृष्टि मनोरम है
सब राग-द्वेष इसमें सम हैं
ये नदी तुझे बुलाती है
पेड़ों की छाँव लुभाती है
और दूर कहीं तेरे घर में
इक माँ है, आस लगाती है
अब लौट जा इन अपनों में तू ,
अब अगले सावन आना। 

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