Sunday, August 7, 2016

ग़ज़ल - 9

दोराहे पर लाकर सवाल करती है
ज़िंदगी कैसे कमाल करती है
इक तरफ जमाल-ए-यार और इक तरफ बेबसी
या तो निढाल करती है या मलाल करती है
क्यूँ खुद-ब-खुद नहीं चुनती अपनी राह
ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी पे बहाल करती है
कोई भी राह चुनो आख़िरकर
दुसरे की जुस्तजू खाल करती है
शाम का वक़्त और चाय की प्याली
ज़िंदगी फ़िलहाल अपना ख़याल करती है

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