Tuesday, October 24, 2017

ग़ज़ल - 34

ज़ुल्मत-कदे में गोया चिंगारी ले कर के पहुँचे
कुछ लोग दुनिया में ईमानदारी ले कर के पहुँचे

दुनिया-ए-राह में अक्सर पिछड़ जाते हैं वो लोग
अपने उसूलों का बोझ जो बोहोत भारी ले कर के पहुँचे

लगा है ताँता यहाँ आज़ादी के खरीददारों का
नुमाइश में सब अपनी-अपनी बारी ले कर के पहुँचे

तुझको रुख़्सत किया खुद से ज़माने की दुहाई देकर
मक़ाम-ए-इश्क़ पे हम अपनी लाचारी ले कर के पहुँचे

बे-तकल्लुफ़ लहज़ा, बिखरी ज़ुल्फ़ें, सादा पैरहन
तुझको खबर नहीं हम कितनी बेक़रारी ले कर के पहुँचे

अजनबी लोगों में भी अपनापन ढूंढ लेते हैं
नये शहर में हम तस्वीर तुम्हारी ले कर के पहुँचे

Sunday, October 22, 2017

ग़ज़ल - 33

मेरा है ये तेरा बदन नहीं
आहिस्ता-आहिस्ता आओ दफ़अतन नहीं

संभलने का वक़्त मिल जाए मुझे
दायम याद करने का मन नहीं

मस्त रहती हो, सैर करती हो
सीना है मेरा चमन नहीं

मेरी बाहों में होने से गुरेज़ तुम्हें
दम घोंटती है पर ये कफ़न नहीं

Wednesday, October 18, 2017

दीवाली

जो दीप सदा उदीप्त रहे उस कुंदन-लौ सा जलना है
इस दीवाली राम सरीखे स्व-कुटुंब को चलना है

हम पर्वों के धर्म-रीति के साथ प्रतीकों को समझें
काम क्रोध मद लोभ तमस का वध कर निश्छल बनना है

Monday, October 16, 2017

ग़ज़ल - 32

चलते-चलते यूँ ही रुक जाता हूँ
रुकते-रुकते आगे बढ़ जाता हूँ

मुझसे सब बचकर निकल जाते हैं
फ़रियादी दुनिया को नज़र आता हूँ

सारा कमरा उजाड़ देता हूँ
बेतरतीबी में सुकून पाता हूँ

मेरी सदाएँ नहीं पहुँचती तुम तक
मैं अपने शेरों से तुम्हें बुलाता हूँ

"जा जा जा जा बेवफ़ा"
बेख़याली में अक्सर गुनगुनाता हूँ

एक चीज़ को एक बार ही करता हूँ
धोखा हर बार नया खाता हूँ

Saturday, October 14, 2017

ग़ज़ल - 31

क़तरा-क़तरा तिश्नगी से भर जाइये
हर तरफ़ सहरा है किधर जाइये

आपको देखकर क़ाबू में नहीं हैं
मुमकिन है आप हमसे डर जाइये

ख़ुशबू पैरहन में ओढ़कर मिलने गये
और वो कहते हैं थोड़ा सँवर जाइये

वो इठलाना, वो गुंजाना, वो उड़ जाना
कोई तितलियों से कह दो सुधर जाइये

बेवजह गिला करना उनकी आदत है
दुनिया इतनी ख़राब है तो मर जाइये

Friday, October 13, 2017

ग़ज़ल - 30

लम्हा लम्हा कट रही है
ज़िन्दगी जैसे बट रही है

मेरे ख़्वाब तेरे साये से लिपटे
मेरी हद तेरी चौखट रही है

तू मेरी बाहों में भी
किसी और से लिपट रही है

दफ़अतन तेरे क़रीब आता हूँ
तू मेरे सामने से हट रही है

आहिस्ता-आहिस्ता ख़्वाब दूर हो रहा है
तू मेरे अंदर भी सिमट रही है

तेरा अक्स दरिया-ए-सराब था
धुंध जैसे छट रही है

तसव्वुर में तेरा शमीम-ए-बदन
पलक आंखों से सट रही है

मोहब्बत का तेरे मक़बरा है
ज़िन्दगी जैसे मरघट रही है

रात बड़ी बेचैन गुज़री क्या
चादरों पे सिलवट रही है

आइना लेकर खड़ी रहती है
ज़िंदगी बड़ी मुँहफट रही है

Wednesday, October 11, 2017

ग़ज़ल - 29

वो शराब सबमें बाँट देता है
ज़हर को ज़हर काट देता है

खुशियों की गर्द उड़ रही है क्या
आँसू भी मिट्टी पाट देता है

इतना आसाँ नहीं होता वापस जाना
रिश्ता टूट कर जुड़ता है तो गाँठ देता है

ख़ुदा भी अपने बंदों में फ़र्क़ करता है
सबको चुनता है मुझको छाँट देता है

Tuesday, October 10, 2017

ख़त

याद है तुम्हें
वो हमारे बीच ख़तों का सिलसिला
वो भी क्या दौर था
कच्चे जज़्बातों का दौर
वो एक खूबसूरत नक़्क़ाशी के काग़ज़ का चुनना
और उसपे इत्र की स्याही से हर्फ़-दर-हर्फ़ ख़्वाबों को उकेरना
हर शब्द में जैसे खुशबू लिखा हो
वो इंतज़ार ख़तों का
वो सब्र का दौर
बोहोत कुछ सिखाता है

हर ख़त के आख़िर में तुम्हारा एक शेर
और मेरे हर ख़त में उसका जवाब
बहर में लिखते-लिखते बोहोत लम्बी ग़ज़ल हो गयी

अब तुम नहीं हो
तो कभी-कभी खोल लेता हूँ उन ख़तों को
उनको हवा तो लगे
शब्द बदले-बदले से मालूम पड़ते हैं
रंग ज़र्द पड़ता दिखाई देता है ख़तों का
ठीक हमारे रिश्ते की तरह
कोई दस्तावेज़ मालूम पड़ते हैं ये, किसी पुरानी सल्तनत के
जिसमे एक राजा और एक रानी हुआ करते थे
मैं पढ़ता हूँ इनको कभी-कभी
लफ्ज़-दर-लफ्ज़ झूठ लिखा है

क्यों छोड़ गई तुम इन्हें मेरे पास
क्या मोहब्बत की वसीयत थे ये ख़त मेरे नाम

आकर ले जाओ कभी तुम
इन मुर्दा ख़तों को