Thursday, April 26, 2018

ग़ज़ल - 66

इक आशा उड़ने को उछल-उछल
लेकिन हैं उसके अंग विकल

पर क्या उड़ान रुक सकती है
जब मन में हो विश्वास अचल

इक पंखुड़ी के नहीं होने से
क्या खुशबू गुल की होती ओझल

दुर्गम पहाड़ियों को देखे वो
नहीं हो कर भी रहें कदम मचल

हर पथ की निगाहें उसको देखें
नहीं उसकी पेशानी पर इक बल

दुनिया उसको अपनाए नहीं तो
इस दुनिया की है स्थिति विकल

Friday, April 20, 2018

ग़ज़ल - 65

शब ही जैसे सुब्ह की तक़दीर है
वस्ल जैसे हिज्र की तामीर है

कर रही बीमार मुझको दम-ब-दम
मुझपे तेरे जिस्म की तासीर है

इतना बोझल हो के डूबा आफ़ताब
जैसे इसके दिल में कोई पीर है

मुझको बढ़ाकर हाथ क्यूँ छूते नहीं
बोलती मुझसे तेरी तस्वीर है

कितनी बेताबी है सीने में जहाँ के
जैसे किसी के वीरानगी की ताबीर है

चप्पे-चप्पे ग़फ़लतों के इस समर में
इल्म ही गोया मेरी शमशीर है

Monday, April 16, 2018

रुकावट के लिए खेद है

मैं और कुछ नहीं
बस एक रिश्ता हूँ
तुम से तुम तक का
बस एक ज़रिया हूँ
तुम्हें पहुँचाने के लिए
तुम्हारे न्यूनतम से सर्वोत्तम तक
पाश्विक से पुरुषोत्तम तक
पर ये रास्ते दो तरफ़ा हैं
ये रिश्ता एक वर्तुल है
मैं ज़रिया बन कर थक चुका हूँ
रास्ते में अब चोट के गड्ढे हैं
भावनाओं के अवरोधक हैं
तो अब अगर तुम आगे नहीं बढ़ पा रहे
तो माफ़ करना, रुकावट के लिए खेद है

Thursday, April 12, 2018

ग़ज़ल - 64 : बलात्कार

आओ छू लूँ मैं तुमको इस तरह
काँप उठे तुम्हारी रूह जिस तरह

बाँध कर तुमको तुमसे ताक़तवर हाथों में
जिस्म का गोश्त नोच लूँ इस तरह

मेरे हाथों में कलावा भी है ताबीज़ भी
धर्म का काम है तमाशा देखो मज्लिस तरह

मैं भेड़िया हूँ मगर चंदन लगाया टोपी पहनी है
मेरा शिकार कर लो मगर तुम करोगे किस तरह

Friday, April 6, 2018

ग़ज़ल - 63

शुक्रवार दफ़्तर से घर आता हूँ
जैसे जज़्बातों से भर आता हूँ

कदम ऐसे उछलते जैसे चाँद पर पड़ते हों
अजनबी लोगों से टकराता हूँ, मुस्कुराता हूँ

घर आकर, एक गुनगुनाती हुई चाय बनाकर
शफ़क़ चाँदनी के आग़ोश में बैठ जाता हूँ

कुछ पल को हिरासा आँखें शून्य में तकती हैं
दो एक गीत सुनता हूँ, बीती भुलाता हूँ

Wednesday, April 4, 2018

अकेले शेर - 11

साथ साथ चलती है मगर साथ नहीं लगती
कोशिश कितनी भी कर लूँ ज़िंदगी हाथ नहीं लगती

एक खालीपन है बाहर जिसे मैं शोर से भरता हूँ
एक सन्नाटा है मुझमें जिसमें आवाज़ नहीं लगती