Saturday, March 31, 2018

अकेले शेर - 10

तेरा मुझमें आँखें मूँद के गिरना
पत्तों पे ओस की बूंद का गिरना

वस्ल-ए-नमनाक फ़ज़ा में घुल जाना
तमाम शब मिट्टी पर धुंध का गिरना

Wednesday, March 28, 2018

ग़ज़ल - 62

दो जहान में पड़ी ज़िन्दगी
हाशिये पर खड़ी ज़िन्दगी

तिश्नगी का इक सफ़ीना
मझधार में पड़ी ज़िन्दगी

बुझते दिये सी फड़फड़ाई
हवाओं से लड़ी ज़िन्दगी

इंसानों से पार हो गयी
सायों से लड़ी ज़िन्दगी

उम्र के साथ मौत भी लायी
जाने कैसी हड़बड़ी ज़िन्दगी

खुशबू से न गुल की ज़ीनत
न होती छोटी बड़ी ज़िन्दगी

माँ के आँचल से लिपट के रोई
खुशियों की झड़ी ज़िन्दगी

घड़ी की सुइयाँ कर रहीं टिक टिक
पल पल गुज़र रही ज़िन्दगी

Monday, March 26, 2018

अकेले शेर - 9

ये रास्ते कितनी तरफ़ खुलते हैं
तुमसे मिलते हैं जितनी तरफ़ खुलते हैं

खुशबू की तरह राहों में मिलते हैं कुछ लोग
कैसे समेटोगे ये इतनी तरफ़ खुलते हैं

ग़ज़ल - 61

इस तरह अपनी शख़्सियत को फ़ाज़िल बनाया
जिधर को बह रही नदी उसे मंज़िल बनाया

ख़्वाहिशें मार कर लाशों की इक कश्ती बनायी
जहाँ पे कम हुआ पानी उसे साहिल बनाया

बोहोत अरसा हुआ है यार की दस्तरस में बैठे
मुद्दत हुई दो जिस्म जोड़कर दिल बनाया

Friday, March 23, 2018

ग़ज़ल - 60

हाथों की लकीरों में तेरा इम्कान लिख दिया
हमने अपनी क़िस्मत बदलने का फ़रमान लिख दिया

महफ़िल में इक दिन पढ़ रहा था उसकी बुराइयाँ
बेख़ुदी में हमने उसे जान लिख दिया

जो पूछा के बताएँ कुछ अपना भी तार्रुफ़
दर्द की बस्ती का सुलैमान लिख दिया

इक दिन लहू ने पूछा इतनी शराब किस लिए
थोड़ा ख़ून निकाल कर आराम लिख दिया

इक शब जो उसने चेहरे से काकुल हटाए अपने
सितारों ने आसमाँ पे चाँद लिख दिया

क्या क्या नीलाम होगा जब मुफ़्लिसी आवेगी
फेहरिस्त में सबसे ऊपर ईमान लिख दिया

इक दिन हिसाब करने बैठा था फ़रेबों का
दिल ने कलम उठायी और दीवान लिख दिया

Monday, March 19, 2018

ग़ज़ल - 59

मछली कहे ये पानी से
तिश्ना न बुझे ज़िंदगानी से

तुझसे मुझमें हलचल वो नहीं
जो सागर की तुग़्यानी से

तू क्यूँ थम नहीं जाती
उम्र कहे ये जवानी से

तू कैसे ख़ुश रहती है
समझ पूछे नादानी से

तूने अब तक क्या-क्या सीखा
मुश्किल पूछे आसानी से

इतना बल कैसे पड़ता है
बोसा पूछे पेशानी से

इक खिलौने की क्या क़ीमत है
तंगी पूछे मनमानी से

तू ही अखबारों में क्यूँ छपती है
सच पूछे ये कहानी से

चलो दफ़्तर की रौनक़ बढ़ाएँ
ज़िंदगी की क़ुर्बानी से

दिल-ए-फ़लक में टीस उठी है
टूटे तारे की निशानी से

वो हिज्र को उल्फ़त कहती थी
मैं मिला था इक दीवानी से

कोई आकर कह दे जाने को
मुझमें बैठी अंजानी से

Thursday, March 8, 2018

ग़ज़ल - 58

ख़ुद को आग़ोश-ए-सब्र में पाया
जब ख़ुद को इक क़ब्र में पाया

बड़ी आसानी से लुटा दिया हमने
ता-उम्र था जिसको जब्र में पाया

दुनिया से बिछड़ कर दुनिया में लौटो
धरा ने पानी को अब्र में पाया