Wednesday, December 27, 2017

ग़ज़ल - 48

अगरचे मुझे हासिल तेरे नक़्श-ए-पा भी नहीं
ये मेरे शौक की क़ज़ा भी नहीं

हयात दोनों को बर-अक्स लिए जाती है
और इसमें दोनों की रज़ा भी नहीं

मौत भी कम कोई ग़नीमत है
ज़िन्दगी कम कोई सज़ा भी नहीं

तुझसे मसाइल ख़त्म किये जा सकते हैं
अव्वल तो मुश्किल नहीं और मज़ा भी नहीं

Saturday, December 23, 2017

ग़ज़ल - 47

तेरी कू में रूह बस्ती है
बड़ी दिलचस्प फ़ाक़ा-परस्ती है

तेरे जाने से चली जाती है
जान जानाँ इतनी सस्ती है

ज़िन्दान-ए-मोहब्बत के बाहर
आख़िर हमारी क्या हस्ती है

तेरे आगे बिल्कुल बेबस हैं
तेरे दीदों की ज़बरदस्ती है

वो तेरा मुश्क, वो प्याला-ए-नाफ़
कैसी शराब और कैसी मस्ती है

Thursday, December 21, 2017

ग़ज़ल - 46

जितना तुझपर वक़्त बिताया करते हैं
उतना ज़्यादा ख़ुद को ज़ाया करते हैं

हम हाथों से जिनको खोते रहते हैं
हम ख़्वाबों में उनको पाया करते हैं

जाने दस्तक देकर कौन चला जाता है
हम कमरों से बाहर आया करते हैं

तुझको छूकर अंगड़ाई लेती है हवा
खुशबू खुशबू मौसम गाया करते हैं

जिस मौज़ू को पहले मिसरे में ढँकते हैं
मिसरा-ए-सानी में नुमाया करते हैं

कुछ लोग जहाँ पर अदब की बातें करते हैं
हम हाथों से चावल खाया करते हैं

जिसका दूध पी कर बचपन से बड़े होते हैं
कुछ लोग उस गाय का खून बहाया करते हैं

Tuesday, December 12, 2017

ग़ज़ल - 45

जुगनुओं को चमकने के लिए बस रात काफ़ी है
मैं तन्हा खुश रहता हूँ, ये बात काफ़ी है

ता-उम्र उसकी बातों का असर मेरे ज़ेहन में रहा
किसी को छू लेने के लिए एक मुलाक़ात काफ़ी है

दुनिया के हर ग़म से बचा कर रखती है
बस इक तेरे ग़म की सौग़ात काफ़ी है

मैं दम भर देख लेता हूँ तो गुल खिल जाते हैं
मेरे सीने में कशिश, दिल में जज़्बात काफ़ी हैं

मुफ़्लिस क्यूँ रोता है, भूखे पेट सोता है
जवाब नहीं चाहिए बस सवालात काफ़ी हैं

Tuesday, December 5, 2017

ग़ज़ल - 44

मेरे रंग-ओ-बू-ओ-लज़्ज़त का सबक तुम बनो
मेरी ज़िंदगी की चाय का अदरक तुम बनो

न लौंग, न इलाइची, न अजवाइन, न दालचीनी
मेरे ज़ौक़-ए-ज़िंदगी का फ़क़त हक़ तुम बनो

बस हम और तुम और कुछ पत्ते और शीरीं
मुझमे ऐसे घुल जाओ के कड़क तुम बनो

Monday, December 4, 2017

ग़ज़ल - 43

दिल में जो इक रंज है उसको कभी कहा नहीं
हाँ मगर तुम क्या समझोगे तुमने कभी सहा नहीं

मैं के जो इक जिस्म हूँ मुझको बदलते रहते हो
तुम कोई रूह हो जिसकी कोई इंतिहा नहीं

मैं तुम्हारा नसीब नहीं जो मुझको बिगाड़ सकोगे तुम
मैं तो बस एक ख़्याल हूँ जो टिक कर कभी रहा नहीं

तेरे सामने से हट जाऊँगा गर ये गुमाँ हो जाएगा
मैं जिधर देख रहा हूँ तुम दर-असल वहाँ नहीं

चीख़ कर पुकारती है हर फ़ाक़ा-परस्त की नज़र
दौलत का इस्तेमाल कर दौलत में नहा नहीं