Tuesday, September 20, 2011

ग़ज़ल - 1

गुल-ए-चमन की निगाहों से गुज़रते जाना
बहारों की मौसिक़ी पे फ़िसलते जाना

हर एक राह पहुँचाती वहीं है
जिस दिशा भी जाना, झिलमिलाते जाना

बे-ताल्लुकी से जीने में कोई सार नहीं है
हर एक पत्थर पे हाथ फिराते जाना

हर एक यारी इक मुकाम रखती है
गर पड़े कूचा-ए-यार तो ठहरते जाना

याद रखना के इक दिल भी पड़ा है सीने में
कभी अपनी समझदारी से भी इतर जाना

साक़ी-ओ-वाइज़ के दर्जे बराबर हैं
मस्जिद-ओ-मैखाने पे सर झुकाते जाना

Friday, August 5, 2011

अकेले शेर - 3

कुछ खेल लकीरों का है, कुछ अपनी बिसात भी
कुछ ज़ख्म हबीबों का है, कुछ अपनी सौगात भी
वो तोड़ गया मेरे अक्स को शीशे की तरह
उस आईने में देख ली, हमने अपनी औकात भी

Friday, July 29, 2011

अकेले शेर - 2

मेरी मजबूरियों को मेरा पैमाना न समझ
उजड़ना ही बस्तियों का फ़साना न समझ
गर देख सके तो झाँक मेरी आँखों के तले
मेरे आज से मेरे कल का ज़माना न समझ

Wednesday, July 6, 2011

इक ऐसी भी शाम हो...

शाम हो, जाम हो, सुबू भी हो,
कुछ बिछड़े यारों का समूह भी हो |

कुछ बीती बातों के किस्से चलें,
कुछ पुराने गीतों की बू भी हो |

कुछ पेचीदा मसलों के हल भी निकलें,
कुछ रूमानियत भरी गुफ्तगू भी हो |

कुछ खिलखिलाहट की लड़ियाँ जो ख़त्म न हों,
कुछ अश्कों की बूँदें कभी शुरू भी हों |

कुछ बे-तकल्लुफ अंदाज़ में बातें करें,
फिर बीच में कभी शायरी-ए-उर्दू भी हो |

कुछ मीठी यादों से मन महके,
बागों में हरसिंगार की खुशबू भी हो |

उस शाम को संजो के रखें हम,
जहाँ ये भी हो, वो भी हो, और तू भी हो |

अकेले शेर - 1

वो मुझसे बिस्मिल है तो क्योंकर है,
नदी भी पर्बतों से होकर है,
इस आशनाई का अब मैं क्या करूँ,
हमने अज़ीज़ों से खायी बोहत  ठोकर है |

Saturday, February 26, 2011

तमन्नाएं

तमन्ना थी के पाना है सूरज को,
घर से ज़रा सवेरे निकला था,
जाने किस राह देर हो गयी,
दुपहरी के सूरज ने हाथ जला दिए |

सोचते थे के क्या है ये सागर,
डुबकी मारने की ही तो दरकार है,
पार ही कर लूँगा, तैराक अच्छा हूँ,
अब तक आँखों से टपकता है खारा पानी |

मिला था एक गुल का सानिध्य,
पर मैं तो ठहरा भँवरा,
एक फूल से मेरी संतुष्टि कहाँ,
अब गुंजन ही बन गया है जीवन - क्रंदन |

Tuesday, February 15, 2011

सौंधा सा प्रेम

सौंधा सा प्रेम,
उमड़ पड़ता है,
निगाहों की छींटाकशी पे |

कभी यकबयक, रेंगता हुआ,
अदृश्य से उठता है,
और बुन देता है रेशमी जाले |

कभी बिलखता भी है,
छोटी-छोटी बातों पर,
और पावन कर जाता है दिलों के मेल |

कुछ निराली बात है,
इन प्रेम-वल्लरियों की,
उर्वर कर जाती हैं पाषण ह्रदय को |

सच, सौगात ही है,
प्रीत-कुसुम का खिलना,
निस्स्पंद जीवन में सुवास का मिलना |

Thursday, January 20, 2011

तलाश

कभी यूँ भी लगता है, क्यूँ जियें
फरेब-ए-हयात-ए-मय, क्यूँ पियें
ना इल्म-ए-हस्ती, ना मर्ग-ए-वाकिफ़
फिर चाक गिरेबाँ, क्यूँ सियें

यूँ झूठ ही तो है, जो सब जाना
ना-वाकिफ़ हूँ उससे, जो है पाना
क्या जिंदगी का मकसद, क्यूँ जिंदगी का मकसद
झूठा है खुदा, झूठा पैमाना

क्या राज़-ए-खुल्द, रूह-ए-निहाँ
जाना कहाँ, हूँ मैं हैराँ
कहते हैं तूने, बनाया हमें
किसने तुझे, कुछ दे जबाँ 

दिनांक : 21/01/2011