Tuesday, September 20, 2011

ग़ज़ल - 1

गुल-ए-चमन की निगाहों से गुज़रते जाना
बहारों की मौसिक़ी पे फ़िसलते जाना

हर एक राह पहुँचाती वहीं है
जिस दिशा भी जाना, झिलमिलाते जाना

बे-ताल्लुकी से जीने में कोई सार नहीं है
हर एक पत्थर पे हाथ फिराते जाना

हर एक यारी इक मुकाम रखती है
गर पड़े कूचा-ए-यार तो ठहरते जाना

याद रखना के इक दिल भी पड़ा है सीने में
कभी अपनी समझदारी से भी इतर जाना

साक़ी-ओ-वाइज़ के दर्जे बराबर हैं
मस्जिद-ओ-मैखाने पे सर झुकाते जाना

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