गुल-ए-चमन की निगाहों से गुज़रते जाना
बहारों की मौसिक़ी पे फ़िसलते जाना
हर एक राह पहुँचाती वहीं है
जिस दिशा भी जाना, झिलमिलाते जाना
बे-ताल्लुकी से जीने में कोई सार नहीं है
हर एक पत्थर पे हाथ फिराते जाना
हर एक यारी इक मुकाम रखती है
गर पड़े कूचा-ए-यार तो ठहरते जाना
याद रखना के इक दिल भी पड़ा है सीने में
कभी अपनी समझदारी से भी इतर जाना
साक़ी-ओ-वाइज़ के दर्जे बराबर हैं
मस्जिद-ओ-मैखाने पे सर झुकाते जाना
बहारों की मौसिक़ी पे फ़िसलते जाना
हर एक राह पहुँचाती वहीं है
जिस दिशा भी जाना, झिलमिलाते जाना
बे-ताल्लुकी से जीने में कोई सार नहीं है
हर एक पत्थर पे हाथ फिराते जाना
हर एक यारी इक मुकाम रखती है
गर पड़े कूचा-ए-यार तो ठहरते जाना
याद रखना के इक दिल भी पड़ा है सीने में
कभी अपनी समझदारी से भी इतर जाना
साक़ी-ओ-वाइज़ के दर्जे बराबर हैं
मस्जिद-ओ-मैखाने पे सर झुकाते जाना
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