Saturday, February 26, 2011

तमन्नाएं

तमन्ना थी के पाना है सूरज को,
घर से ज़रा सवेरे निकला था,
जाने किस राह देर हो गयी,
दुपहरी के सूरज ने हाथ जला दिए |

सोचते थे के क्या है ये सागर,
डुबकी मारने की ही तो दरकार है,
पार ही कर लूँगा, तैराक अच्छा हूँ,
अब तक आँखों से टपकता है खारा पानी |

मिला था एक गुल का सानिध्य,
पर मैं तो ठहरा भँवरा,
एक फूल से मेरी संतुष्टि कहाँ,
अब गुंजन ही बन गया है जीवन - क्रंदन |

2 comments:

  1. too good...i love ur writing style....it's really hard to imagine that you can write this serious!!

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