Thursday, July 26, 2018

ग़ज़ल - 75

उनकी आँखों ने किया हमसे कोई बेनाम सा वादा होगा
बेवजह धड़क रहा है दिल कितना सादा होगा

किसी पैमाने में न बैठेगा ये दरिया-ए-उल्फ़त दिल का
ये जितना इश्क़ है दुनिया में उससे भी ज़ियादा होगा

वो भँवरा साँझ ढले आता है गुल के नज़दीक
हाँ कुछ ऐसा ही मेरे दिल का इरादा होगा

हम जो मिल जाएँ बज़्म-ए-दहर तो और क्या होगा
खुशियाँ दो-गुनी और ग़म तेरा आधा होगा

Monday, July 23, 2018

ग़ज़ल - 74

अपनी ख़ुशबू अपनी रवानी भूल गए
शहर आकर ज़िंदगानी भूल गए

यहाँ बाद-ए-सबा भी है अज़ाब-गाह
हम गाँव का मीठा पानी भूल गए

बंद-बदरंग कमरों में सर खपाते हैं
वो पेड़ धानी और धूप जाफ़रानी भूल गए

अपनी जड़ों से दूर स्वावलंबन में रहते हैं
अपने बुज़ुर्गों की निगहबानी भूल गए

प्रकृति पर बे-इंतिहा ज़ुल्म ढाते हैं
ख़ुदपर कायनात की मेहरबानी भूल गए

अरमानों के समझौते को ज़िन्दगी समझ बैठे
हम जैसे ज़िंदा रहने के मआनी भूल गए

**************************

अपनी ख़ुशबू अपनी रवानी भूल गए
शहर आकर ज़िंदगानी भूल गए

यहाँ बाद-ए-सबा भी है अज़ाब-गाह
हम गाँव का मीठा पानी भूल गए

बंद कमरों में सर खपाते हैं
नर्म घास पे फ़ुर्सत की छाँव भूल गए

ज़िन्दगी कुछ नही जुज़ सफ़रनामा है
बढ़ते रहने की ललक में सफ़र को ही भूल गए

शौक़ बेशक़ीमती हैं, हर पल की क़ीमत है
अरमाँ तो सारे अब फंदों पे झूल गए

Tuesday, July 17, 2018

ग़ज़ल - 73

चमन के गुलों पे रंग कौन डालेगा
तुम नहीं होगी तो मुझे कौन सँभालेगा

मेरे अतफ़ाल-मन को फिर कौन पोसेगा
मेरी चंचल-हवस को फिर कौन पालेगा

मेरी गुस्ताखियों पे मुझसे कौन रूठेगा
मेरे ख़तों को हवा में कौन उछालेगा

जो तू न रही तो मैं खाली न हो पाऊंगा
तुझे मुझमें से फिर कौन निकालेगा

Friday, July 13, 2018

अकेले शेर - 15

तेरे बिछड़ने का जो ग़म है उस ग़म की रुख़्सत से भी कम
है उस ग़म की रुख़्सत से भी कम तेरे बिछड़ने का जो ग़म

फूट कर रोएँगे हम दर्द-ए-जिगर के मज़ार पर
दर्द-ए-जिगर के मज़ार पर फूट कर रोएँगे हम

Thursday, July 12, 2018

अकेले शेर - 14

वक़्त के साथ तुम हर एक बात भूल जाओगे
मगर जो महसूस किया मुझ संग वो कैसे भुलाओगे

Wednesday, July 4, 2018

ग़ज़ल - 72

फ़ज़ा की शफ़क़ रौशनी में घुल जाऊँ
मैं इस तरह अपनी तीरगी को उलझाऊँ

न सिरें हैं हासिल न गिरहें काबिज़
ज़िन्दगी तुझे मैं किस तरह सुलझाऊँ

आफ़ताब अपनो मुठ्ठी में भींच लूँ
पर खलाओं से निकलती किरणें कैसे बुझाऊँ

इक पुरानी याद सा आँखों में आकर
इतना बरस लूँ के धुल जाऊँ

तू अपनी ज़ंजीर में जकड़ तो ले मुझे
पर ऐसे बाँधना के फिर खुल जाऊँ

तुझपे फूल डालूँ तेरी इबादत करूँ
मैं नहीं जानता तुझे कैसे रिझाऊँ

खुशी हो तो इतनी के आँसू छलकें
दर्द हो तो महज़ इतना के मर जाऊँ