Tuesday, May 30, 2017

ग़ज़ल - 20

जाने किस गुमान में बैठा है
इश्क़ अपने अंजाम पे बैठा है

उसकी आँखों में वफ़ा झोंककर
हुस्न बेईमान सा बैठा है

लैला की गली की ख़ाक छानकर
मजनू हलकान सा बैठा है

मेरी बर्बादी बनकर वो मुझमें
मेरी पहचान सा बैठा है

वो खुद ही अपनी हार मानकर
मुझपर एहसान सा बैठा है

ग़म-ए-फ़िराक़ का तोह्फ़ा देकर
मुझपर दान सा बैठा है

अपनी साँस से झगड़ा कर कर
वो मेरी जान सा बैठा है

वो मेरी इस दुनिया का ही नहीं
मेरे दो जहान सा बैठा है

अब बरसों बाद वो मेरे रू-ब-रू
बस जान-पहचान सा बैठा है

सीनों में शोला भड़काकर
वाइज़ नादान सा बैठा है

वो फ़तवा जारी कर के गोया
दौर-ए-फ़रमान सा बैठा है

प्यादों को आगे कर कर
राजा आराम से बैठा है

अधूरी किताबें पढ़ने वाला
मौत के सामान सा बैठा है

बस्तियों में आग लगाकर
शहर श्मशान सा बैठा है

इक औरत पर हाथ उठाकर
आदमी बलवान सा बैठा है

कमाल-ए-ज़ब्त ये है वतन का
फ़ितना-गर मेहमान सा बैठा है

चैन से सो जाओ के सरहद पर
सिपाही दरबान सा बैठा है 

Friday, May 26, 2017

समय

ये ज़िन्दगी क्या है
ये जो याद है क्या वो ज़िन्दगी है
या जो खो गया है और जो पाने वाला है
उसके बीच में है

पर मध्य किधर है
समय की मूलभूत इकाई क्या है
उसके तो निरंतर टुकड़े हो सकते हैं

तो आज किधर है
अभी है! पर अभी तो बीत गया
अभी-अभी
फिर से
कैसे पकड़ेंगे इसे

जो कल था उसका अस्तित्व ही नहीं
सिर्फ प्रतिफल है
जो होने वाला है वो घटा ही नहीं
वो ओझल है

समय के खेल में क्या पा रहे हैं?
क्या समय माया है?
क्योंकि इसका एहसास सापेक्ष्य है, रेलेटिव है
प्रकाश की गति पे समय बदलने लगता है
तो क्या समय की इकाई भी स्थायी नहीं है ?

तो फिर समय क्या है?
अगर ये ज़िन्दगी का चौथा आयाम है
तो फिर ज़िन्दगी क्या है?

Tuesday, May 16, 2017

ग़ज़ल - 19

ये हुक्म है मेरा, कोई अर्ज़ी नही
तू जुदा हो मुझसे ये मेरी मर्ज़ी नही

तू चुप है तो ये आलम है दिल का
के बिजली गिरी है मगर गरजी नही

तुझे रोक लूँ के इश्क़-ए-बे-कराँ है तुझसे
बात मतलब की तेरे है मेरी ख़ुदगर्ज़ी नही

बादशाहत और फ़क़ीरी में तेरे होने का अंतर
और चाक गिरेबाँ सी सकूँ मैं कोई दर्ज़ी नही

Tuesday, May 9, 2017

ग़ज़ल - 18

ये क्या है जो सवार है सर पर
किसी दिलकशी का ख़ुमार है सर पर
दो रोज़ जो हयात लायी है तेरे दर पर
तो मर के जाना है इस सदी को जी कर
उसका चेहरा जो मयस्सर हो आखों के भीतर
तो इबादत में पलकें झुक न जायें क्यूँकर
चलो हिजरत कर लो के घड़ी आयी है बर्बर
सितमगर ने कहा है अब वो नहीं उस जगह पर

त्रिवेणी - 2

इक ख़त लिखा खुद को मैने
कुछ सवाल पूछे, रिटॉरिकल
जवाब आया के ग़ालिब पढ़ते हो, दूसरा ख़त किधर है?

त्रिवेणी - 1

तुम हमपर ऐसे छपे
जैसे मेज़ पर चाय के धब्बे
रोज़ पोछता हूँ फिर प्याला रख देता हूँ

हिंदी-उर्दू

1.
साजन ने कहा ये सजनी से
तू मुझको फ़ूल सी लगती है
कहना तो चाहा उर्दू का पर बोल दिया अंग्रेज़ी का।

2.
इक रक्षक और इक दहशतगर्द, दोनो ही माओं के बेटे हैं
एक माँ ने बेटा जाया है, इक माँ का बेटा ज़ाया है

अकेले शेर - 5

बेफ़िक्री, बेनियाज़ी, किस्सा-ए-अहद-ए-गुज़िश्ता है
अब तो घरों से बस होली-दिवाली का रिश्ता है