Sunday, August 30, 2009

मर्म

दूर शाखाओं पर बैठे पंछीयों के जोड़े देख
स्वतः ही खिल उठती हैं भाव-भंगिमाएँ
मान के कौतूहल को शाद करते वो पल
जब तृष्णित धरती पर होती सोम-वर्षाएं

सागर की अल्हड़, झंकृत लहरें
चित्त को यूँ करती आर्ल्हादित
जैसे वर्षो से बिछड़ी रही माँ
तनुज मिलन पर होती उन्मादित

मन के विचरण को आरोहण मे निर्देशित कर
ज्यों ही पार किया ये इंद्रधनुषी गगन
बादलों की सेज पर झूमता पाया एक ऐसा उपवन
चिरस्थाई एकांत जहाँ, हर्षोन्माद का होता सृजन

"मैं" की संकुचित परिधि को लाँघ, अविरल हम आगे बढ़ें
चहुँओर सुख के उद्देश्य का, आनंदरत वंदन करें
एहसास ही मापक होते हैं जीवन की जीवंतता के
हृदय मे मधुमय एहसासों का नवीन स्पंदन करें


दिनाक:  जून, 2006

1 comment:

  1. again a gud one...must say ur hindi vocab is too gud...

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