Sunday, August 30, 2009

फिर याद तुम्हारी आई है

क़हक़हे लगाते होठों पर एक, हरियाली सी छाई है
छंदों मे सरगम भरने की फिर, चाह एक अंगड़ाई है
भ्रमर सरीखी आज हृदय मे, व्याकुलता भर्मायी है
कैसे सम्भालूं आज प्रिये, फिर याद तुम्हारी आई है

हिरनी की मादक चाल मे, इन पंछीयों के सुर-ताल मे
इस इंद्रधनुषी गुलाल मे, दीपक की ज्योति-मशाल मे
एक सुलझे हुए सवाल मे, सुंदरता पुनः समाई है
कैसे सम्भालूं आज प्रिये, फिर याद तुम्हारी आई है

तपती-दहकती गर्मियों को, सावन बना सकता हूँ मैं
सूर्य की इन रश्मीयों को, पावन बना सकता हूँ मैं
दूर छीतिज को पाने की ये, हौसला-अफजाई है
कैसे सम्भालूं आज प्रिये, फिर याद तुम्हारी आई है

ताज़ा है मुझको दौर-ए-उल्फ़त, कुछ पल मे सदीयाँ गुज़री थीं
साथ हमारे जाने कितनी, ख्वाबों की कड़ियाँ गुज़री थीं
वो भी सुना था इन आँखों से, जो ज़ुबाँ से तू ना कह पाई है
कैसे सम्भालूं आज प्रिये, फिर याद तुम्हारी आई है

अक्सर यूँ लगा है मुझको भी, कोई मुझबिन कहीं अकेला है
आहट जो हुई, सिहरन सी उठी, शायद ये मिलन की बेला है
पथराई आँखों मे अश्कों संग, उत्सुकता घर आई है
कैसे सम्भालूं आज प्रिये, फिर याद तुम्हारी आई है


दिनाक:  दिसंबर, 2007

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