Friday, July 29, 2011

अकेले शेर - 2

मेरी मजबूरियों को मेरा पैमाना न समझ
उजड़ना ही बस्तियों का फ़साना न समझ
गर देख सके तो झाँक मेरी आँखों के तले
मेरे आज से मेरे कल का ज़माना न समझ

Wednesday, July 6, 2011

इक ऐसी भी शाम हो...

शाम हो, जाम हो, सुबू भी हो,
कुछ बिछड़े यारों का समूह भी हो |

कुछ बीती बातों के किस्से चलें,
कुछ पुराने गीतों की बू भी हो |

कुछ पेचीदा मसलों के हल भी निकलें,
कुछ रूमानियत भरी गुफ्तगू भी हो |

कुछ खिलखिलाहट की लड़ियाँ जो ख़त्म न हों,
कुछ अश्कों की बूँदें कभी शुरू भी हों |

कुछ बे-तकल्लुफ अंदाज़ में बातें करें,
फिर बीच में कभी शायरी-ए-उर्दू भी हो |

कुछ मीठी यादों से मन महके,
बागों में हरसिंगार की खुशबू भी हो |

उस शाम को संजो के रखें हम,
जहाँ ये भी हो, वो भी हो, और तू भी हो |

अकेले शेर - 1

वो मुझसे बिस्मिल है तो क्योंकर है,
नदी भी पर्बतों से होकर है,
इस आशनाई का अब मैं क्या करूँ,
हमने अज़ीज़ों से खायी बोहत  ठोकर है |