Tuesday, March 21, 2017

ग़ज़ल - 16

गोशे-गोशे में तेरे ये आज किसका फ़साना है
तू पहलु में मेरे है और बातों में ज़माना है

ये आँखें जो तेरी मिल नहीं रहीं मेरी आँखों से
मेरी नज़रों में तू है तेरी नज़रों में अफ़्साना है

आज तू एक ग़ज़ल जो पढ़ी जा चुकी है
आज तू एक शम्अ' जिसमें जल चुका परवाना है

ये बस्ती जल रही है आज दिल की और मैं चुप हूँ
ये चिंगारी किसी अपने के हाथों का लगाना है

वो दोनों मुस्कुराकर रु-ब-रु होते हैं उफ़ुक़ पर
चाँद और सूरज में बस तकल्लुफ़ी याराना है

के इंसाँ कुछ नहीं अपने ही कल का एक पुलिंदा है
के जीना बस तजुर्बों का मुकम्मल शायराना है

Thursday, March 16, 2017

ग़ज़ल - 15

ऐ रफ़ू-ए-दिल, हरकत तो दे
आँसू ही बहा, नफ़रत तो दे

बुत-परस्ती में खुद पत्थर बन
अपनी इबादत को मक़सद तो दे

झाड़ खुद को अना की गर्द से
दिल में निगहबानों को शिरकत तो दे

वो जिनके दम पे तू जिंदा है यहाँ
एहसान न मान, पर इज़्ज़त तो दे

जिसके जवाब के इंतज़ार में बैठा है
कमबख़्त उसके नाम एक ख़त तो दे

कितनी आसाँ हो गयी है दुनिया जानाँ
जीने की कोई जद्दोजहद तो दे

अपनी मसर्रत बिछा दूँ तेरे दामन पर
बद-बख़्त मुझे थोड़ी सी मोहब्बत तो दे

जुर्म-ए-मोहब्बत की पेशी में तूने
अपनी कहानी सुनाई, अब हक़ीक़त तो दे

ऐ संग-ए-दिल तेरी दुनिया में
कैसे जीना है मश्वरत तो दे

बोहोत बे-स्वाद हैं पकवान यहाँ माँ
अपने हाथों की रोटी की लज़्ज़त तो दे