Sunday, August 7, 2016

ग़ज़ल - 10

नूर बरपे गली गली
जब वो महवश चली चली
रखे उसने फूलों पे कदम
दिल की ज़मीन पे गर्द उड़ी
उसके रुख़सार की नरमी जैसे
उगते सूरज पे कली खिली
उसका तबस्सुम, एक तसादुम
उसकी हया पे बर्क़ गिरी
उसकी हसी और उसकी बोली
कान में जैसे कूक पड़ी
अफ़्लाक सी आँखें, चाल मयूरी
शफ़क़ में लिपटी हूर-परी
उसकी कमर है जैसे झेलम
ज़ुल्फ़ों में फिरदौस मिली
मुझपे निगाहें एक इनायत
और है उसकी दरिया-दिली

ग़ज़ल - 9

दोराहे पर लाकर सवाल करती है
ज़िंदगी कैसे कमाल करती है
इक तरफ जमाल-ए-यार और इक तरफ बेबसी
या तो निढाल करती है या मलाल करती है
क्यूँ खुद-ब-खुद नहीं चुनती अपनी राह
ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी पे बहाल करती है
कोई भी राह चुनो आख़िरकर
दुसरे की जुस्तजू खाल करती है
शाम का वक़्त और चाय की प्याली
ज़िंदगी फ़िलहाल अपना ख़याल करती है