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Thursday, January 18, 2018

निशान

याद है तुम्हें
मैं कितना लापरवाह हुआ करता था
किसी भी चीज़ को कहीं से उठाकर कहीं रख देना
और तुम उतनी ही सुलझी हुई
तरतीब से रहने वाली
हर चीज़ को उसकी सही जगह पर सजा कर रखती थी

तुम्हारी एक आदत थी
तुम अक्सर अपनी चीज़ों पे कोई निशान बना दिया करती थी
ताकि तुम उसे आसानी से ढूंढ़ पाओ
वो दूसरों की चीज़ों में मिल न जाए
कोई और उसपर अपना दावा ना कर सके

कभी नाख़ून से कोई हर्फ़ गोद देना
कभी कोई रंग लगाकर छोड़ देना

तुमने कुछ निशान छोड़े हैं मेरी रूह पर भी
पर कभी मुझे ढूंढ़ने नहीं आई
कभी मुझपर दावा नहीं किया

अब वक्त उन निशानों को मिटा रहा है
और मैं डर रहा हूँ
कहीं मैं अपनी पहचान खो न दूँ

आकर देखो तो कभी तुम
रूह लावारिस बैठी है मेरे अंदर
नए निशानों की मुंतज़िर

Tuesday, January 9, 2018

समंदर

याद है तुम्हें
हम दोनों अक्सर शाम के वक़्त समंदर के तट पर मिला करते थे
और किनारे के पानी में खड़े होकर, एक दूसरे का हाथ थामे, आँखें मूंद लिया करते थे

हर लहर के साथ पाँव के नीचे की रेत खिसकती रहती
और हमें लगता कि जैसे हम किसी जहाज़ पर हिलोरे खाते शून्य की ओर बढ़ रहे हों
चाँद का गुरुत्व स्वतः ही खींच लिए जा रहा हो

तुम अक्सर डर जाया करती और आँखें खोलने की बात कहती -
"कहीं हम बोहोत अंदर तो नही आ गए? कहीं हम रेत में धस तो नहीं रहे?"
"तुम्हें मुझपर भरोसा नहीं है?"
"बिल्कुल नहीं"
पर फिर भी तुम आँखें नहीं खोलती
उस उन्माद, उस भ्रम को हम दोनों खोना नहीं चाहते थे

लहरों की लयबद्ध ध्वनि हम में एक ऐसा सामंजस्य पैदा कर देती,
जैसे किसी तानपुरे की तान से झंकृत होकर हम उपसमाधि की ओर बढ़ रहे हों

पर तुम्हे मालूम है, मैं आँखें खोला करता था, बीच बीच में
यह देखने के लिए नहीं कि हम कितने पानी में आ चुके हैं
केवल तुम्हें देखने के लिए, शफ़क़ चाँदनी में

फिर किसी रोज़ इक तेज़ झोंके की लहर आयी
और हाथ छूठ गए
रात अमावस की थी
हम किनारे से काफ़ी अंदर आ चुके थे
मैंने बोहोत ढूँढा तुम्हें
न तुम मिली न इससे वापस आने का रास्ता
मैं खोता चला गया

आकार देखो तो कभी तुम
मैं शून्य तक पहुँच चुका हूँ
बोहोत सन्नाटा है यहाँ ।

Tuesday, October 10, 2017

ख़त

याद है तुम्हें
वो हमारे बीच ख़तों का सिलसिला
वो भी क्या दौर था
कच्चे जज़्बातों का दौर
वो एक खूबसूरत नक़्क़ाशी के काग़ज़ का चुनना
और उसपे इत्र की स्याही से हर्फ़-दर-हर्फ़ ख़्वाबों को उकेरना
हर शब्द में जैसे खुशबू लिखा हो
वो इंतज़ार ख़तों का
वो सब्र का दौर
बोहोत कुछ सिखाता है

हर ख़त के आख़िर में तुम्हारा एक शेर
और मेरे हर ख़त में उसका जवाब
बहर में लिखते-लिखते बोहोत लम्बी ग़ज़ल हो गयी

अब तुम नहीं हो
तो कभी-कभी खोल लेता हूँ उन ख़तों को
उनको हवा तो लगे
शब्द बदले-बदले से मालूम पड़ते हैं
रंग ज़र्द पड़ता दिखाई देता है ख़तों का
ठीक हमारे रिश्ते की तरह
कोई दस्तावेज़ मालूम पड़ते हैं ये, किसी पुरानी सल्तनत के
जिसमे एक राजा और एक रानी हुआ करते थे
मैं पढ़ता हूँ इनको कभी-कभी
लफ्ज़-दर-लफ्ज़ झूठ लिखा है

क्यों छोड़ गई तुम इन्हें मेरे पास
क्या मोहब्बत की वसीयत थे ये ख़त मेरे नाम

आकर ले जाओ कभी तुम
इन मुर्दा ख़तों को

Friday, September 15, 2017

बाज़ी

याद है तुम्हें
हम दोनों कितने प्रतिस्पर्धी हुआ करते थे
कोई भी क्षेत्र हो, या कोई खेल हो
स्क्रैबल, पत्ते, कैरम, शतरंज...
तुम्हारे शब्दों की पकड़ तुम्हे स्क्रैबल में काम आती
मेरे हाथों की सफ़ाई पत्तों में
कैरम का शुरू होना मतलब तंज़ और छींटाकशी का दौर
शतरंज में चालें वापस लेने की ज़िद
जीतने की सरगर्मी हम दोनों में रहती

जाने कब ये प्रतिस्पर्धा खेलों से निकल कर हमारी ज़िंदगी में आ गयी
जो बातें हमें एक दूसरे पर गर्व महसूस कराती थीं, अब वो खटकने लग गयीं
एक दूसरे की उप्लब्धियाँ कब अहम को चोट पहुँचाने लग गयीं, पता ही नहीं चला

अब तुम नहीं हो
तो खेल में वो मज़ा नहीं है
वो जुनून, वो मज़ाक, वो ज़ीस्त नहीं है
हाँ रिश्ता अब भी है तुमसे
किसी का साथ न होना उस रिश्ते की अपूर्णता तो नहीं
एक तत्व का रिश्ता अब भी है तुमसे, एक सूक्ष्म सतह पर

अब भी कई बार तुम्हारे साथ कोई बाज़ी खेलता हूँ, अकेले ही
तुम्हारी सब चालें तो पता ही हैं मुझे...
तुमसे अच्छा खेलता हूँ तुम्हारी बाज़ी

आकर देखो तो कभी तुम
कितना हारा हुआ हूँ मैं

Thursday, September 14, 2017

दुआ

याद है तुम्हें
जब भी तुम बीमार पड़ती थी
तो मैं कितना घबरा जाता था
भाग कर दवा लाना, खाना लाना

पर जब मैं बीमार पड़ता था
तुम बिल्कुल शाँत रहती थी
कहती थी - सब ठीक हो जाएगा
और दूसरे कमरे में जाकर
नम आंखों से दुआ करती थी
के मैं जल्दी ठीक हो जाऊँ

अब तुम नहीं हो
तो क्या इतना कर सकती हो -
मेरे लिए दुआ माँग लो
में ठीक ही नहीं होता
शायद तुम ज़्यादा पसंद हो उसे
या शायद मुझे वो ज़बान नहीं आती -
खामोशी की, आँसुओं की, शिद्दत की
या शायद मेरा इलाज ही मुश्किल है
शायद उसको हाथों में भी नहीं
शायद मेरी दवा तुम हो

Saturday, August 5, 2017

ग़ज़लें

याद है तुम्हें
जब भी मैं कोई ग़ज़ल लिखता था
आधा-अधूरा, एक मिसरा भी
तो सबसे पहले तुम्हें सुनाता था
और पूछता था कि कैसा लिखा है

तुम बड़े चाव से सुनती
और कुछ देर चुप रहती
फिर कहती - "किस से सुनना चाहते हो?
एक दोस्त से या एक आलोचक से?"

और मैं कहता - "दोस्त से।"
क्योंकि मुझे पता रहता,
अगर आलोचक कहूँगा तो तुम कहोगी -
"अच्छा लिखा है, पर गहरा नहीं है।
उपमाएं हैं, पर रूपक नहीं हैं।
क़ाफिये हैं, पर ज़ेहनी नहीं है।"
"हाँ तो फिर तुम ही लिख लेती।"
"तो फिर ये नुक्ताचीनी का सुख कैसे मिलता।"
पर मैं जानता था, कि तुम्हें लेखनी की अच्छी समझ है
शेर-ओ-शायरी की सराहना का स्तर बोहोत ऊंचा है
पर फिर भी तुम मेरा ढाढस बंधाती

और जब भी मैं कहीं अटक जाता
वो एक शब्द जो ज़ेहन तक आकर ढल नहीं पाता
तो मैं तुम्हारे पास जाता
और तुम वो एक मुक़म्मल शब्द ढूंढ़ कर ले आती
और मेरी ग़ज़ल पूरी हो जाती

तुम मेरी ग़ज़लकारी के लिए वैसे ही ज़रूरी -
जैसे श्रृंगार के लिए माथे पे टीका,
आंखों के लिए सुरमा और कानों के लिए बाली।

आकर देखो तो कभी तुम,
कितनी ग़ज़लें बदसूरत पड़ी हैं।

Sunday, June 4, 2017

शतरंज

याद है तुम्हें, हम दोनों अक्सर शतरंज की बाज़ी खेला करते थे
तुम्हें 'डिफेंसिव' खेलना पसंद था और मुझे 'अटैक'
शायद हमारे व्यक्तित्व की ही ये परछाइयाँ थीं

अक्सर तुम अपने अहम मोहरे बड़ी चालाकी से मेरे सामने खोल देती
और मैं नादान सा उन्हें हासिल कर लेता, उसे तुम्हारी गलती समझ कर
और कुछ ही चालों बाद हार जाता

अपनों को बेवजह कुर्बान करके जीतना मेरी फ़ितरत में नहीं था
पर तुम हँसकर कहती - मोहरें अहम नहीं हैं, बाज़ी है

आकर देखो अब कभी तुम खेल मेरा
सबसे पहले रानी मरवा देता हूँ

Friday, June 2, 2017

घर

याद है तुम्हें, हमने एक घर बनाया था
जिसकी चार दीवारों को अपने हाथों से सजाया था

इक दीवार जिसपे चाहत उकेरी थी
इक दीवार जिसपे गुलदान सजाया था
इक दीवार जिसपे ग़ालिब और कीट्स छपे थे
पर इक दीवार जिसको काला रंगवाया था

जब भी हममें से कोई रूठ जाता
तो बिस्तर का सिरा उस काली दीवार की तरफ कर देता

अक्सर यूँ होता कि मैं सिरा चाहत की तरफ घुमाता
अक्सर तुम थक जाती उसे सियाह दीवार की तरफ करते

आकर देखो तो कभी तुम
चारों दीवारें काली रंगवा दी हैं