Saturday, May 12, 2018

ग़ज़ल - 68

ज़िंदगी यूँ तो अपनी क्षमता में कट जाती है
हाँ मगर एक आधा पहलू में सिमट जाती है

अपने लिए वो अक्सर कम पड़ जाती है
इक माँ इतने हिस्सों में बट जाती है

दिन वो राएगाँ जो सर्वत की खोज में निकले
शाम वो मुकम्मल जो माँ की ममता से लिपट जाती है

ज़रूरी नहीं के ता-उम्र ताबिश से महरूम रहा जाए
हवा गर ज़ोरों की चले तो बदली छट जाती है

Wednesday, May 2, 2018

ग़ज़ल - 67

शब जो चारों तरफ़ हल्ला हुआ
दिल यादों का इक मोहल्ला हुआ

इक बूढ़ी याद मुझको खोजने आयी
इक तिफ़्ल मेरे अंदर निठल्ला हुआ

आँखों के कोरों से धनक फूटी
मेरे सीने पे बारिश क्या वल्लाह हुआ

इस तरह घुमाएं हैं वो ज़िन्दगी हमारी
जैसे उनकी उंगलियों में फसा छल्ला हुआ