Sunday, June 4, 2017

शतरंज

याद है तुम्हें, हम दोनों अक्सर शतरंज की बाज़ी खेला करते थे
तुम्हें 'डिफेंसिव' खेलना पसंद था और मुझे 'अटैक'
शायद हमारे व्यक्तित्व की ही ये परछाइयाँ थीं

अक्सर तुम अपने अहम मोहरे बड़ी चालाकी से मेरे सामने खोल देती
और मैं नादान सा उन्हें हासिल कर लेता, उसे तुम्हारी गलती समझ कर
और कुछ ही चालों बाद हार जाता

अपनों को बेवजह कुर्बान करके जीतना मेरी फ़ितरत में नहीं था
पर तुम हँसकर कहती - मोहरें अहम नहीं हैं, बाज़ी है

आकर देखो अब कभी तुम खेल मेरा
सबसे पहले रानी मरवा देता हूँ

Friday, June 2, 2017

घर

याद है तुम्हें, हमने एक घर बनाया था
जिसकी चार दीवारों को अपने हाथों से सजाया था

इक दीवार जिसपे चाहत उकेरी थी
इक दीवार जिसपे गुलदान सजाया था
इक दीवार जिसपे ग़ालिब और कीट्स छपे थे
पर इक दीवार जिसको काला रंगवाया था

जब भी हममें से कोई रूठ जाता
तो बिस्तर का सिरा उस काली दीवार की तरफ कर देता

अक्सर यूँ होता कि मैं सिरा चाहत की तरफ घुमाता
अक्सर तुम थक जाती उसे सियाह दीवार की तरफ करते

आकर देखो तो कभी तुम
चारों दीवारें काली रंगवा दी हैं