Wednesday, January 27, 2016

ग़ज़ल - 7

तुम कह भी दोगे, हम मान भी लेंगे
ये राज़ एक दिन मेरी जान भी लेंगे

तुम कौन हो इसका इल्म है मुझे
मैं कौन हूँ ये सब जान ही लेंगे

बस एक ही गिला है मुझे तुमसे
हम तुम्हे कभी ईमान से न लेंगे

दुनिया से छुपकर कोई कबतक जिया है
साये हैं कि उसके पहचान ही लेंगे 

Tuesday, January 26, 2016

ग़ज़ल - 6

मुख़ातिब है वो मुझसे पर अनजान बनता है
वो शख़्स मुझको देख कर हैरान बनता है 

वो कहता है एक अरसा हुआ तअल्लुक़ किये हुए 
वो जानता है के दिल कई-रोज़ बेईमान बनता है 

कितनी बेताबी है बादल के सीने में 
मिट्टी की खुशबू से ये पैगाम बनता है

बीती हुई मोहब्बत एक दौर से गुज़रती है 
पहले जलन, फिर गुस्सा, फिर इल्ज़ाम बनता है 

बीते हुए कल की हवस अच्छी नहीं 
अकेलापन अक्सर मौत का सामान बनता है 

अब अजनबी हैं हम-तुम दुनिया के लिए 
जैसे छुपकर कोई इंसान रहता है